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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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मैंने अपराधियों की भाँति सिर झुका कर कहा–हाँ, जरा देख रही थी।

बाबू जी–इसमें शक नहीं कि पुस्तक बहुत ही अच्छी है, भावों से भरी हुई है, लेकिन इसमें मानव-चरित्र को वैसी खूबी से नहीं दिखाया गया है, जैसा अंग्रेज या फ्रांसीसी लेखक दिखलाते हैं। तुम्हारी समझ में तो न आयेगा, लेकिन कहने में क्या हर्ज है, योरोप में आजकल ‘स्वाभाविकता’ (Realism) का जमाना है, वे लोग मनोभावों के उत्थान और पतन का ऐसा वास्तविक वर्णन करते हैं कि पढ़कर आश्चर्य होता है। हमारे यहाँ कवियों को पग-पग पर धर्म तथा नीति का ध्यान रखना पड़ता है, इसलिए कभी-कभी उनके भावों में अस्वभाविकता आ जाती है, और यही त्रुटी तुलसीदास में भी है।

मेरी समझ में उस समय कुछ भी न आया, बोली–मेरे लिए तो यही बहुत है, अँग्रेजी पुस्तकें कैसे समझूँ?

बाबू जी–कोई कठिन बात नहीं है। एक घंटा भी रोज पढ़ो, तो थोड़े ही समय में यथेष्ट योग्यता प्राप्त कर सकती हो, पर तुमने तो मेरी बात न मानने की सौगन्ध ही खा ली है। तुम्हें कितना समझाया कि मुझसे शर्म करने की आवश्यकता नहीं, पर तुम्हारे ऊपर कुछ प्रभाव न पड़ा। कितना कहता हूं कि जरा स्वच्छ रहा करो, परमात्मा सुन्दरता देता है तो चाहता है कि उसका श्रृंगार भी होता रहे, लेकिन जान पड़ता है, तुम्हारी दृष्टि में उसकी कुछ भी मर्यादा नहीं है, या शायद तुम समझती हो कि मेरे ऐसे कुरूप मनुष्य के लिए तुम चाहे जैसे भी रहो, आवश्यकता से अधिक अच्छी हो। मानो यह अत्याचार मेरे ऊपर है। तुम मुझे ठोंक-पीट कर वैराग्य सिखाना चाहती हो। जब मैं दिन-रात मेहनत करके कमाता हूँ, तो स्वभावत: मेरी यह इच्छा होती है कि उस द्रव्य का सबसे उत्तम व्यय हो, परन्तु तुम्हारा फूहड़पन और पुराने विचार मेरे परिश्रम पर पानी फेर देते हैं। स्त्रियाँ केवल भोजन बनाने, बच्चे पालने, पति सेवा करने और व्रत-उपवास रखने के लिए नहीं हैं, उनके जीवन का लक्ष्य उनसे बहुत ऊँचा है। वे मनुष्यों के समस्त सामाजिक और मानसिक विषयों में समान रूप से भाग लेने की अधिकारिणी हैं! उन्हें मनुष्यों की भांति स्वतंत्र रहने का अधिकार प्राप्त है। मुझे तुम्हारी यह बंदी दशा देखकर बड़ा कष्ट होता है। स्त्री पुरुष की अर्द्धांगिनी मानी गई है, लेकिन तुम मेरी मानसिक या सामाजिक, किसी आवश्यकता को पूर्ण नहीं कर सकती हो। मेरा और तुम्हारा धर्म अलग, आचार-विचार अलग, आमोद-प्रमोद के विषय अलग। जीवन के किसी कार्य में मुझे तुमसे किसी प्रकार की सहायता नहीं मिल सकती। तुम स्वयं विचार सकती हो कि ऐसी दशा में मेरी जिंदगी कैसी बुरी तरह कट रही है!

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