लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

154 पाठक हैं

मुंशी प्रेमचन्द की चार प्रसिद्ध कहानियाँ


बाबू जी का कहना बिलकुल यथार्थ था। मैं उनके गले में एक जंजीर की भांति पड़ी हुई थी। उस दिन से मैंने उन्हीं के कहे अनुसार चलने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर ली, अपने देवता को किस भाँति अप्रसन्न करती?

यह कैसे कहूँ कि मुझे पहनने-ओढ़ने से प्रेम था ही नहीं। था और उतना ही था, जितना दूसरी स्त्रियों को होता है। जब बालक और वृद्ध तक श्रृंगार पसंद करते हैं, तो मैं स्त्री ठहरी। मन भीतर-ही-भीतर मचल कर रह जाता था। दूसरे मेरे मायके में मोटा खाने और मोटा पहनने की चाल थी। मेरी माँ और दादी हाथों से सूत कातती और जुलाहे से उसी सूत के कपड़े बुनवा लिए जाते थे। बाहर से बहुत कम कपड़े आते थे। मैं जरा भी महीन कपड़ा बनवाना चाहती और श्रृंगार की ओर रुचि दिखाती तो वे फौरन टोकतीं और समझाती कि साज-समाज भले घर की लड़कियों को शोभा नहीं देते। ऐसी आदत अच्छी नहीं। यदि कभी वह मुझे दर्पण के सामने देख लेतीं, तो झिड़कने लगतीं। परन्तु अब बाबूजी की जिद से मेरी यह झिझक जाती रही। मेरी सास और ननदें मेरे बनाव-श्रृंगार पर नाक-भौं सिकोड़तीं, पर मुझे अब उनकी परवाह न थी। बाबूजी की प्रेम-परिपूर्ण दृष्टि के लिए मैं झिड़कियाँ भी सह सकती थी। अब उनके और मेरे विचारों में समानता आती जाती थी। वह अधिक प्रसन्नचित्त जान पड़ते थे। वह मेरे लिए फैसनेबुल साड़ियाँ, सुंदर जाकटें, गाउन चमकते हुए जूते और कामदार स्लीपर लाया करते; पर मैं इन वस्तुओं को धारण कर किसी के सामने न निकलती, ये वस्त्र केवल बाबू जी के ही सामने पहनने के लिए रखे थे। मुझे इस प्रकार बनी-ठनी देख कर उन्हें बड़ी प्रसन्नता होती थी। स्त्री अपने पति की प्रसन्नता के लिए क्या नहीं कर सकती? अब घर के काम-काज से मेरा अधिक समय बनाव-श्रृंगार तथा पुस्तकावलोकन में ही बीतने लगा। पुस्तकों से मुझे प्रेम होने लगा था।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book