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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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मैं इन्हीं विचारों में डूबी हुई थी, कि नर्स ने आकर कहा कि आपको साहब याद करते हैं। यह मेरे क्लब जाने का समय था। मुझे उनका बुलाना अखर गया, लेकिन क्या करती, किसी तरह उनके पास गयी। बाबू जी को बीमार हुए लगभग एक मास हो गया था। वह अत्यन्त दुर्बल हो रहे थे। उन्होंने मेरी ओर विनयपूर्ण दृष्टि से देखा। उसमें आँसू भरे हुए थे। मुझे उन पर दया आयी। बैठ गयी, और ढांढस देते हुए बोली, क्या करूँ? कोई दूसरा डाक्टर बुलाऊ?

बाबू जी आँखें नीची करके अत्यंत करुण भाव से बोले, मैं यहाँ कभी नहीं अच्छा हो सकता, मुझे अम्माँ के पास पहुँचा दो।

मैंने कहा, क्या आप समझते हैं कि वहाँ आपकी चिकित्सा यहाँ से अच्छी होगी?

बाबू जी बोले, क्या जाने क्यों मेरा जी अम्माँ के दर्शनों को लालायित हो रहा है। मुझे ऐसा मालूम होता है कि मैं वहाँ बिना दवा-दर्पन के भी अच्छा हो जाऊँगा।

मैं–यह आपका केवल विचार-मात्र है।

बाबूजी–शायद ऐसा ही हो; लेकिन मेरी विनय स्वीकार करो। मैं इस रोग से नहीं, इस जीवन से दु:खित हूँ।

मैंने अचरज से उनकी ओर देखा!

बाबू जी फिर बोले–हाँ, मैं इस जिंदगी से तंग आ गया हूँ। मैं अब समझ रहा हूँ मैं जिस स्वच्छ, लहराते, हुए निर्मल जल की ओर दौड़ा जा रहा था, वह मरुभूमि है। मैं इस प्रकार जीवन के बाहरी रूप पर लट्टू हो रहा था; परन्तु अब मुझे उसकी आंतरिक अवस्थाओं का बोध हो रहा है। इन चार वर्षों में मैंने इस उपवन में खूब भ्रमण किया, और उसे आदि से अंत तक कंटक-मय पाया। यहां न तो हृदय को शांति है, न आत्मिक आनंद। यह एक उन्मत्त, अशान्तिमय, स्वार्थपूर्ण, विलासयुक्त जीवन है। यहाँ न नीति है न धर्म, न सहानुभुति, न सहृदयता। परामात्मा के लिए मुझे इस अग्नि से बचाओ। यदि और कोई उपाय न हो तो अम्माँ को एक पत्र ही लिख दो। वह अवश्य यहाँ आयेंगी। अपने अभागे पुत्र का दु:ख उनसे न देखा जाएगा, उन्हें इस सोसाइटी की हवा अभी नहीं लगी है, वह आयेंगी। उनकी वह ममतापूर्ण दृष्टि, वह स्नेहपूर्ण सुश्रूषा मेरे लिए सौ औषधियों का काम करेगी। उनके मुख पर वह ज्योति प्रकाशमान होगी, जिसके लिए मेरे नेत्र तरस रहे हैं। उनके हृदय में स्नेह है, सत्य है, विश्वास है। यदि उनकी गोद में मैं मर भी जाऊँ तो मेरी आत्मा को शान्ति मिलेगी।

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