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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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मुंशी प्रेमचन्द की चार प्रसिद्ध कहानियाँ

लाल फीता या मजिस्ट्रेट का इस्तीफा

विद्या पर जाति-विशेष या कुल का एकाधित्य नहीं होता। बाबू हरिबिलास जाति के कुरमी थे। घर खेती-बारी होती थी, पर उन्हें बचपन ही से विद्याभ्यास का व्यसन था। यह विद्या-प्रेम देखकर उनके पिता रामबिलास महतो ने बड़ी बुद्धिमत्ता से काम लिया। उन्हें हल में न जोता। आप मोटा खाते थे, मोटा पहनते थे और मोटा काम करते थे, लेकिन हरिबिलास को कोई कष्ट न देते थे। वह पुत्र को रामायण पढ़ते देखकर खुशी से फूले न समाते थे। जब गाँव के लोग उनके पास अपने सम्मन या चिट्ठियाँ पढ़वाने आते, तो गर्व से महतो का सिर ऊँचा हो जाता था। बेटे के पास होने की खुशी और फेल होने का रंज उन्हें बेटे से भी अधिक होता था और उसके इनामों को देखकर तो वह मानो वह स्वर्ग में पहुँच जाते थे। हरिबिलास का उत्साह इन प्रेरणाओं से और भी बढ़ता था, यहाँ तक कि शनैः शनैः मैट्रिकुलेशन की परीक्षा में पास हो गये।

रामबिलास ने समझा था अब फ़सल काटने के दिन आये। लेकिन जब मालूम हुआ कि यह विद्या का अन्त नहीं, बल्कि वास्तव में आरम्भ है तो उनका जोश ठंडा पड़ गया। किन्तु हरिबिलास का अनुराग अब कठिनाइयों को ध्यान में न लाता था। उस दृढ़ संकल्प के साथ जो बहुधा दरिद्र, पर चतुर युवकों में पाया जाता है, वह कालेज में दाखिल हो गया। रामबिलास हारकर चुप हो गये। वे दिनोंदिन अशक्त होते जाते थे और खेती परिश्रम का दूसरा नाम है। कभी समय पर सिंचाई न कर सकते, कभी समय पर जुताई न हो सकती। उपज कम होती जाती थी, पर इस दुरवस्था में भी वह हरिबिलास की पढ़ाई के खर्च का प्रबन्ध करते रहते थे। धीरे-धीरे उनकी सारी जमीन रेहन हो गयी। यहाँ तक कि जब हरिबिलास एम.ए. पास हुए, तो एक अंगुल भूमि भी न बची थी। सौभाग्य से उनका नम्बर विद्यालय में सबसे ऊँचा था। अतएव उन्हें डिप्टी मैजिस्ट्रेट का पद मिल गया। रामबिलास ने यह समाचार सुना, तो पागलों की भाँति दौड़ा हुआ ठाकुरद्वारे में गया और ठाकुर जी के पैरों पर गिर पड़ा। उसे स्वप्न में भी ऐसी आशा न थी।

बाबू हरिबिलास विद्वान ही न थे, सच्चरित्र भी थे। बड़े निर्भीक, स्पष्टवादी, दयालू और गम्भीर। न्याय पर उनकी अटल भक्ति थी। न्याय पथ से पग-भर भी न टलते थे। प्रजा उनसे दबती थी, पर उन्हें प्यार करती थी। अधिकारी लोग उनका सम्मान करते थे, पर मन में उनसे शंकित रहते थे।

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