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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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सुमित्रा–तकलीफों से क्या डरना। धर्म रक्षा के लिए आदमी सब कुछ सह लेता है। हमें भी तो आखिर ईश्वर के दरबार में जाना है। उसको कौन-सा मुँह दिखाते।

हरिबिलास–क्या बताऊँ, मुझे तो इस वैज्ञानिक शिक्षा ने कहीं का न रखा। ईश्वर पर श्रद्धा ही नहीं रही। यद्यपि मैंने इन्हीं भावों से प्रेरित होकर इस्तीफा दिया है, पर मुझमें यह सजीव और चैतन्य भक्ति नहीं है! मुझे चारों ओर अन्धकार दिखता है। लड़के अभी तक अपने को सँभालने के योग्य नहीं हुए। शिवबिलास को साल भर और भी पढ़ा सकता तो वह घर संभाल लेता। सन्तबिलास को अभी तीन साल तक सँभालने की जरूरत है, और बेचारे श्रीबिलास की तो अभी कोई गिनती ही नहीं। अब ये बेचारे अद्धड़ ही रह जायेंगे। मालूम नहीं, मन में मुझे क्या समझते हों।

सुमित्रा–अगर उन्हें ईश्वर ने बुद्धि दी होगी तो अब वह तुम्हें अपना पिता समझने के बदले देवता समझने लगेंगे।

रात का समय था। शिवबिलास और उनके दोनों भाई बैठे हुए वार्तालाप कर रहे थे।

शिवबिलास ने कहा, आजकल दादा की दशा देखकर यही जी चाहता है कि गृहस्थी के जंजाल में न पड़ें। कल जब से इस्तीफा मंजूर हुआ है। तब से उनका चेहरा ऐसा उदास हो गया है कि देखकर करुणा आती है। कई बार इच्छा हुई कि चलकर उन्हें तस्कीन दूँ, लेकिन उनके सामने जाते हुए स्वयं मेरी आँखें सजल हो जाती हैं। आखिर हमीं लोगों की चिन्ता उन्हें सता रही है, नहीं तो उन्हें अपनी क्या चिन्ता थी? चाहे तो किसी स्कूल या कालेज में अध्यापक हो सकते हैं। दर्शन और अर्थशास्त्र में बहुत कुशल हैं।

सन्तबिलास–आपने मेडिकल कालेज से अपना नाम नाहक कटवा लिया। यह विभाग तो बुरा न था। आप सरकारी नौकरी न करते, घर बैठकर तो काम कर सकते थे। दादा से भी न पूछा। वे सुनेंगे तो बहुत रंज होगा।

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