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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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बाबू हरिबिलास ने समझा था कि इस्तीफा मंजूर होने में कुछ देर लगेगी; लेकिन दूसरे ही दिन तार मंजूरी आ गयी। उनकी जगह पर एक महाशय नियुक्त हो गये। हरिबिलास ने बड़ी खुशी से चार्ज दिया, किन्तु शाम होते-होते उनकी यह खुशी गायब हो गयी और अनेक चिन्ताओं ने आ घेरा। बजाज के कई सौ रुपये बाकी थे, नौकरों का वेतन भी बाकी पड़ा हुआ था, बँगले का किराया ६ महीने से न दिया गया था, हलवाई का हिसाब-किताब चुकाना था, ग्वाले के कुछ रुपये आते थे। इधर वे इजलास पर बैठे हुए चार्ज दे रहे थे, उधर उनकी कोठी के द्वार पर लेनदारों की भीड़ लगी हुई थी। वे चार्ज देकर लौटे तो यह समूह देखकर उनका दिल बैठ गया। यों वे कुछ हाल और कुछ बकाया के रुपये अपनी सुविधा के अनुसार दे दिया करते थे। लेकिन आज जब हाल और बकाया दोनों ही चुकाना पड़ा, तो यह रकम इस तरह बढ़ी जैसे साफ फर्श को हटा देने से नीचे गर्द का एक ढेर दिखाई देने लगता है। उन्हें अब तक यह अनुमान ही न हुआ था कि मैं इतने रुपयों का देनदार हूँ। सेविंग बैंक की सारी बचत इसी फुटकर हिसाब के चुकाने में समाप्त हो गयी। अब घोड़े, टमटम आदि की भी जरूरत न थी। उन्हें नीलाम करके हाथ में कुछ रुपये कर लेना चाहते थे। दूसरे दिन प्रातः काल जब वे चीजें नीलाम होने लगीं तो वे इस हृदय-विदारक दृश्य को सहन न कर सके। हताश होकर घर में गये तो उनकी आँखें सजल थीं! सुमित्रा ने उन्हें दुखी देखकर सहृदयतापूर्ण भाव से कहा–व्यर्थ दिल इतना छोटा करते हो। रंज करने की कोई बात नहीं, यह तो और खुशी की बात है कि जिस काम के करने में अधर्म था उससे गला छूट गया। अब तुम्हें किसी पर अन्याय करने के लिए कोई मजबूर तो न करेगा। भगवान किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार लगावेंगे ही। अपने भाई-बन्दों पर अन्याय करते तो उसका दोष हमारे ही बाल-बच्चों पर न पड़ता? भगवान को कुछ अच्छा करना था, तभी तो उसने तुम्हारे मन में यह बात डाली।

इन बातों से हरिबिलास को कुछ तस्कीन हुई। सुमित्रा पहले इस्तीफा देने पर राजी न होती थी, पर पति को मानसिक कष्ट से निवृत्त करने की इच्छा ने उसके धैर्य और संतोष को सजग कर दिया था।

हरिबिलास ने सुमित्रा की ओर श्रद्धाभाव से देखकर कहा, जानती हो कितनी तकलीफें उठानी पड़ेंगी?

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