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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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बंगाली बाबू के पास लाला साईंदास के इन दार्शनिक तर्कों का कोई उत्तर न था।

चौथे वर्ष की पहली तारीख थी। लाला जी बैंक के दफ्तर में बैठे हुए डाकिये की राह देख रहे थे। आज बरहल से पैंतालीस हजार रुपये आयेंगे। अबकी उनका इरादा था कि कुछ सजावट के सामान और मोल ले लें। अब तक बैंक में टेलीफोन नहीं था, इसका भी तखमीना मँगा लिया था। आशा की आभा चेहरे से झलक रही थी! बंगाली बाबू से हँस कर कहते थे, इस तारीख को मेरे हाथों में अदबदा के खुजली होने लगती है। आज भी हथेली खुजला रही है। कभी दफ्तरी से कहते, अरे मियाँ शफकत! जरा शकुन तो विचारों, केवल सूद-ही-सूद आ रहा है, या दफ्तर वालों के लिए नजराना शुकराना भी है। आशा का प्रभाव कदाचित् स्थान पर भी होता है। बैंक भी आज खिला हुआ दिखलाई पड़ता था।

डाकिया ठीक समय पर आया। साईंदास ने लापरवाही से उसकी ओर देखा। उसने अपने थैले से कई रजिस्टरी लिफाफे निकाले, साईंदास ने उन लिफाफों को उड़ती निगाह से देखा। बरहल का कोई लिफाफा न था। न बीमा, न मुहर, न वह लिखावट। कुछ निराशा-सी हुई। जी में आया, डाकिए से पूछें–कोई रजिस्टरी रह तो नहीं गयी? पर रुक गये। दफ्तर के क्लर्कों के सामने इतना अधैर्य अनुचित था, किन्तु जब डाकिया चलने लगा तब उनसे न रहा गया, पूछ ही बैठे अरे भाई, कोई बीमा का लिफाफा रह तो नहीं गया? आज उसे आना चाहिए था।

डाकिये ने कहा–सरकार, भला ऐसी बात हो सकती है! और कहीं भूल-चूक हो जाय, पर आपके काम में कहीं भूल हो सकती है?

साईंदास का चेहरा उतर गया, जैसे कच्चे रंग पर पानी पड़ जाय। डाकिया चला गया, तो बंगाली बाबू से बोले–यह देर क्यों हुई? पहले तो कभी ऐसा न होता था।

बंगाली बाबू ने निष्ठुर भाव से उत्तर दिया–किसी कारण से देर हो गयी होगी। घबराने की कोई बात नहीं।

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