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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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निराशा असम्भव को सम्भव बना देती है। साईंदास को इस समय यह ख्याल हुआ कि कदाचित् पारसल से रुपये आते हों। हो सकता है तीन हजार अशर्फियों का पार्सल करा दिया हो। यद्यपि इस विचार को औरों पर प्रकट करने का उन्हें साहस न हुआ, पर उन्हें आशा उस समय तक बनी रही जब तक पारसलवाला डाकिया वापस नहीं चला गया। अंत में संध्या को वह बेचैनी की दशा में उठ कर चले गये। अब खत या तार का इंतजार था। दो-तीन बार झुँझलाकर उठे, कि डाँट कर पत्र लिखूँ और साफ-साफ कह दूँ कि लेन-देन के मामले में वादा न पूरा करना विश्वासघात है। एक दिन की देर भी बैंक के लिए घातक हो सकती है, जिसमें फिर कभी ऐसी शिकायत करने का अवसर न मिले। परन्तु फिर कुछ सोचकर न लिखा।

शाम हो गयी थी, कई मित्र आ गये थे। गपशप होने लगी। इतने में पोस्टमैन ने आकर शाम की डाक साईंदास को दी। यों वह पहले अखबारों को खोला करते थे, पर आज चिटिठ्याँ खोलीं किन्तु बरहल का कोई खत न था। तब बेमन हो एक अंग्रेजी अखबार उठाया। पहले ही पृष्ठ का शीर्षक देखकर उनका खून सर्द हो गया।

‘कल शाम को बरहल की महारानी का तीन दिन की बीमारी के बाद देहांत हो गया।’

इसके आगे एक संक्षिप्त नोट में यह लिखा हुआ थ।–

‘बरहल की महारानी की अकाल मृत्यु केवल इस रियासत के लिए ही नहीं किन्तु समस्त प्रांत के लिए शोकजनक घटना है। बड़े-बड़े भिषगाचार्य (वैद्यराज) अभी रोग की परख भी न कर पाये थे कि मृत्यु ने काम तमाम कर दिया। रानी जी को सदैव अपनी रियासत की उन्नति का ध्यान रहता था। उनके थोड़े से राज्यकाल में उनसे रियासत को जो लाभ हुए हैं, वे चिरकाल तक स्मरण रहेंगे। यद्यपि यह मानी हुई बात थी कि राज्य उनके बाद दूसरों के हाथ में जायेगा, तथापि यह विचार कभी रानी साहब के कर्त्तव्य पालन में बाधक नहीं बना। शास्त्रानुसार उन्हें रियासत की जमानत पर ऋण लेने का अधिकार न था, परंतु प्रजा की भलाई के विचार से उन्हें कई बार इस नियम का उल्लंघन करना पड़ा। हमें विश्वास है कि यदि वह कुछ दिन और जीवित रहतीं तो रियासत को ऋण से मुक्त कर देतीं। उन्हें रात-दिन इसका ध्यान रहता था। परन्तु असामयिक मृत्यु ने अब यह फैसला दूसरों के अधीन कर दिया। देखना चाहिए इन ऋणों का क्या परिणाम होता है। हमें विश्वस्त रीति से यह मालूम हुआ है कि नये महाराज ने–जो आजकल लखनऊ में विराजमान हैं–अपने वकीलों की सम्मति के अनुसार स्वर्गीय महारानी के ऋण-संबंधी हिसाबों को चुकाने से इन्कार कर दिया है। हमें भय है कि इस निश्चय से महाजनी टोले में बड़ी हलचल पैदा होगी और लखनऊ के कितने ही धन सम्पति के स्वामियों को यह शिक्षा मिल जायगी कि ब्याज का लोभ कितना अनिष्टकारी होता है?’

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