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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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सन्त–आपके विचार तो साम्यवादियों से हैं। क्या आपको मालूम नहीं कि वे लोग विद्वानों को अपने समाज में क्या स्थान देते हैं?

शिव–खूब मालूम है, ऐसे विद्वान् इसी बर्ताव के योग्य हैं। जिस प्रकार भूमिवाले अपनी भूमि को, व्यापार वाले अपने व्यापार को भोग-विलास का साधन बनाते हैं उसी प्रकार विद्वान लोग भी अपनी विद्या और सिद्धि को इन्द्रियों के सुख पर बलिदान करते हैं। ऐसी दशा में उन्हें यदि धनियों और भूपतियों के साथ गिना जाता है तो कोई अन्याय नहीं है।

इतने में एक सुन्दरी बालिका कमरे में आयी। यह हरिबिलास की छोटी लड़की अंजनी थी। कन्या पाठशाला में पढ़ती थी। श्रीबिलास ने कहा, आओ अंजनी आओ, ये दोनों महाशय तो बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं, हम-तुम भी अपने जीवन के छोटे-छोटे मन्सूबे बाँधे। मैंने तो खेती करने का विचार किया है।

अंजनी–मैं तुम्हारी गाय दुहूँगी, दही जमाऊँगी, घी निकालूँगी।

श्री–और चर्खा?

अंजनी–भैया, मुझसे चर्खा न चलाया जायगा, यह बुढ़िया का काम है।

श्री–वाह इस चर्खे पर तो सब कुछ निर्भर है। हमारे देश में ७० करोड़ का कपड़ा हर साल विलायत से आता है। शायद १० करोड़ का कपड़ा इटली, जापान, फ्रान्स आदि देशों से आता होगा। हम, तुम और भाग्यवती आध पाव सूत रोज कातें और साल में ३०० दिन काम करें तो तीन मन सूत कात लेंगे। ३ मन सूत में कम-से-कम १०० जोड़े धोतियाँ तैयार होंगी। अगर एक जोड़े का दाम ४ रु. ही रखें, तो हम साल भर में ४०० रु. की धोतियाँ बना लेंगे। धुनाई मैं आप कर लूँगा। यह ३ प्राणियों के साधारण परिश्रम का फल है। यदि देश की आबादी के केवल ५० लाख मनुष्य यह काम करने लगें तो हमारे देश को ८० करोड़ वार्षिक बचत हो जायगी। अगर एक करोड़ मनुष्य इस धन्धे में लग जायँ तो हमें कपड़े के लिए अन्य देशों को एक पैसा भी न देना पड़े।

शिव–(हिसाब लगाकर) यार तुमने खूब हिसाब लगाया। इतने महत्वपूर्ण काम के लिए ५० लाख मनुष्यों की आवश्यकता है। मुझे अब तक यह अनुमान ही न था कि इतने कम आदमियों की मेहनत हमारी आवश्यकताओं को पूरी कर सकती है। चलो मैं भी तुम्हारी मदद करूँगा। अपने पत्र में घरेलू उद्योग-धन्धों का प्रचार करूँगा।

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