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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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सन्त–आपके और मेरे आदर्शों में बड़ा अन्तर है। मेरा विचार है कि बुद्धि और मस्तिष्क से काम करने वालों की श्रमजीवियों पर सदैव प्रधानता रहेगी। उनके काम का महत्व कहीं अधिक है। यदि आप उनके लिए अवस्थानुकूल जीवनवृत्ति की व्यवस्था नहीं करेंगे, तो वे एकाग्रचित होकर विद्या की उन्नति न कर सकेंगे और उसका परिणाम बुरा होगा। सन्तोष और त्याग राष्ट्रीय अवनति के लक्षण हैं। उन्नत जातियाँ अधिकार, राज्य विस्तार, सम्पत्ति और गौरव पर जान देती हैं, यहाँ तक कि बोलशेविष्ट भी दिनोंदिन अपने राज्य की सीमाएँ बढ़ाते चले जाते हैं।

शिव–इस विषय पर फिर बातें होगी, चलो इस समय मौका है, दादा घर में अम्माँ के पास बैठे हुए हैं, जरा उन्हें तसकीन दे आयें।

तीनों युवक जाकर हरिबिलास के सामने खड़े हो गये। उन्होंने चिन्तित भाव से शिवबिलास को देखकर पूछा, तुम्हारा कालेज कब खुलेगा?

शिव–कालेज १५ जनवरी को खुलेगा, लेकिन मैं वहाँ जाना नहीं चाहता। नाम कटवा लिया।

हरिबिलास–यह तुमने क्या नादानी की। तुम्हारी समझ में क्या मैं चार महीने तक भी तुम्हारी सहायता न कर सकता। इसी एप्रिल में तो तुम्हारी परीक्षा होने वाली थी, कम-से-कम मुझसे पूछ तो लेते, या मेरा इतना अधिकार भी नहीं है?

शिव–इतनी भूल तो अवश्य हुई, लेकिन जब आपने न्याय के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया, तो मेरे लिए यह लज्जा की बात थी कि आपके आदर्श के विरुद्ध व्यवहार करता। मैंने डाक्टरी पढ़ने का इरादा छोड़े दिया। कम-से-कम इसे जीविका का आधार नहीं बनाना चाहता। मेरा विचार एक समाचार-पत्र निकालने का है।

हरिबिलास–जेलखाने जाने के लिए भी तैयार हो?

शिवबिलास–यदि न्याय और सत्य की रक्षा के लिए जेल जाना पड़े तो मैं इसे अहोभाग्य समझूँगा।

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