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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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चौधरी–हमारे दादा-बाबा, छोटे-बड़े सब गाढ़ा-गजी पहनते थे। हमारी दादी, नानी चरखा काता करती थीं। सब धन देश में रहता था, हमारे जुलाहे भाई चैन की वंशी बजाते थे। अब हम विदेश के बने हुए महीन, रंगीन कपड़ों पर जान देते हैं। इस तरह दूसरे देशवाले हमारा धन ढो ले जाते हैं, बेचारे जुलाहे कंगाल हो गए। क्या हमारा यही धर्म है कि अपने भाइयों की थाली छीनकर दूसरों के सामने रख दें?

जनता–गाढ़ा कहीं मिलता ही नहीं।

चौधरी–अपने घर का बना हुआ गाढ़ा पहनों, अदालतों को त्यागो, नशेबाजी छोड़ो, अपने लड़कों को धर्म-कर्म सिखाओ मेल से रहो; बस यही स्वराज्य है। जो लोग कहते हैं कि स्वराज्य के लिए खून की नदी बहेगी, वे पागल हैं, उनकी बातों पर ध्यान मत दो।

जनता यह बातें बड़े चाव से सुनती थी, और दिनोंदिन श्रोताओं की संख्या बढ़ती जाती थी। चौधरी सब के श्रद्धा-भाजन बन गए।

भगत जी राजभक्ति का उपदेश करने लगे।

‘भाइयों, राजा का काम राज्य करना और प्रजा का काम उसकी आज्ञा का पालन करना है, इसी को राजभक्ति कहते हैं और हमारे धार्मिक ग्रंथों में हमें इसी राजभक्ति की शिक्षा दी गई है। राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है। उसकी आज्ञा के विरुद्ध चलना महान पातक् है। राजाविमुख प्राणी नरक का भागी होता है।’

एक शंका–राजा को तो अपने धर्म का पालन करना चाहिए।

दूसरी शंका–हमारे तो राजा नाम के हैं, असली राजा तो विलायत के बनिये महाजन हैं।

तीसरी शंका–बनिये धन कमाना जानते हैं, राज करना क्या जानें!

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