लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584
आईएसबीएन :978-1-61301-113

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

317 पाठक हैं

नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


सात साल गुजर गए। विप्रजी विप्र से महाजन हुए, शंकर किसान से मजूर हो गया। उसका छोटा भाई मंगल उससे अलग हो गया था। एक साथ रहकर दोंनों किसान थे, अलग होकर दोंनों मजूर हो गये थे। शंकर ने बहुत चाहा कि द्वेष की आग भड़कने न पाये, किंतु परिस्थिति ने उसे विवश कर दिया। जिस दिन अलग-अलग चूल्हे जले वह फूट-फूटकर रोया। आज भाई-भाई शत्रु हो जाएँगे, एक रोएगा तो दूसरा हँसेगा। एक के घर मातम होगा, तो दूसरे के घर गुलगुले पकेंगे, प्रेम का बंधन, खून का बंधन, दूध का बंधन आज टूटा जाता है। उसने भगीरथ परिश्रम से कुल-मर्यादा का यह वृक्ष लगाया था, उसे अपने रक्त से सीचा था, उसका जड़ से उखड़ना देखकर उसके हृदय के टुकड़े हुए जाते थे। सात दिनों तक उसने दाने की सूरत तक न देखी। दिन-भर जेठ की धूप में काम करता और रात में काम करता और रात को मुँह लपेटकर सो रहता। इस भीषण वेदना और दुस्सह कष्ट ने रक्त को जला दिया, माँस और मज्जा को घुला दिया। बीमार पड़ गया तो महीनों खाट से न उठा। अब गुजर-बसर कैसे हो? पाँच बीघे के आधे खेत रह गए, एक बैल रह गया, खेती क्या खाक होती! अंत को यहाँ तक नौबत पहुँची कि खेती केवल मर्यादा-रक्षा का साधन-मात्र रह गई, जीविका का भार मजूरी पर आ पड़ा!

सात वर्ष बीत गए। एक दिन शंकर मजूरी करके लौटा, तो राह में विप्र जी ने टोककर कहा–शंकर, कल आके अपने बीजवेंग का हिसाब कर ले। तेरे यहाँ साढ़े पाँच मन गेहूँ कब से बाकी पड़े हुए है और तू देने का नाम नहीं लेता, हजम करने का मन है क्या?

शंकर ने चकित होकर कहा–मैंने तुमसे कब गेहूँ लिये थे, जो साढ़े पाँच मन हो गए? तुम भूलते हो, मेरे यहाँ न किसी का छटाग-भर अनाज है, न एक पैसा उधार!

विप्र–इसी नीयत का फल भोग रहे हो कि खाने को नहीं जुटता।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book