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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584
आईएसबीएन :978-1-61301-113

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


यह कहकर विप्रजी ने उस सवा सेर गेहूँ का जिक्र किया, जो आज से सात वर्ष पहले शंकर को दिए थे। शंकर सुनकर अवाक रह गया। ईश्वर! मैंने इन्हें कितनी बार खलिहानी दी, इन्होंने मेरा कौन सा काम किया? जब पोथी पत्रा देखने, साइत-सगुन विचारने द्वार पर आते थे, कुछ-न-कुछ दच्छिना ले ही जाते थे। इतना स्वार्थ! सवा सेर अनाज को अंडे की भाँति सेकर आज यह पिशाच खड़ा कर दिया, जो मुझे निगल ही जाएगा। इतने दिनों में एक यह भी कह देता। क्या इसी नियत से चुप साधे बैठे रहे? बोला–महाराज, नाम लेकर तो मैंने उतना अनाज नहीं दिया पर कई बार खलिहानों में सेर-सेर, दो-दो, सेर दे दिया है। अब आप आज साढ़े पाँच मन माँगते हैं। मैं कहाँ से दूँगा?

विप्र–लेखा जो-जौ, बखसीस सौ-सौ। तुमने जो कुछ दिया होगा, खलिहानी में दिया होगा, उसका कोई हिसाब नहीं, चाहें एक के बजाए चार पसेरी दे दो तुम्हारे बही में साढ़े पाँच मन लिखा है; जिससे चाहे हिसाब लगवा लो। दे दो तो तुम्हारा नाम छेक दूँ, नहीं तो और भी बढ़ता रहेगा।

शंकर–पाँड़े, क्यों एक गरीब को सताते हो, मेरे खाने का ठिकाना नहीं। इतना गेहूँ किसके घर से लाऊँगा?

विप्र–जिसके घर से चाहो लाओ, मैं छटाँक भर भी न छोड़ूँगा। यहाँ न दोगे, भगवान के घर तो दोगे?

शंकर काँप उठा। हम पढ़े-लिखे आदमी होते तो कह देते अच्छी बात है, ईश्वर के घर ही देंगे, वहाँ की तौल यहाँ से कुछ बड़ी तो न होगी। कम-से-कम इसका कोई प्रमाण हमारे पास नहीं, फिर उसकी क्या चिंता। किन्तु शंकर इतना तार्किक, इतना व्यवहार-चतुर न था। एक तो ऋण–वह भी ब्राह्मण का–बही में नाम रह गया तो सीधे नरक में जाऊँगा, इस ख्याल ही से उसे रोमांच हो गया। बोला–महाराज, तुम्हारा जितना होगा यहीं दूंगा। ईश्वर के यहाँ क्यों दूँ? इस जनम में तो ठोकर खा ही रहा हूँ, उस जनम के लिए क्यों काँटे बोऊँ? मगर यह कोई नियाव नहीं है। तुमने राई का पर्वत बना दिया; ब्राह्मण होके तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। उसी घड़ी तगादा करके ले लिया होता, तो आज मेरे सिर पर इतना बड़ा बोझा क्यों पड़ता? मैं तो दे दूँगा, लेकिन तुम्हें भगवान के यहाँ जवाब देना पड़ेगा।

विप्र–वहाँ का डर तुम्हें होगा, मुझे क्यों होने लगा? वहाँ तो सब अपने ही भाई बन्धु हैं। ऋषि-मुनि, सब तो ब्राह्मण ही हैं। देवता भी तो ब्राह्मण हैं। जो कुछ बने-बिगड़ेगा, सँभाल लेंगे। तो कब देते हो? शंकर मेरे पास रखा तो हैं नहीं, किसी से माँग-जाँचकर लाऊँगा कभी न दूँगा!

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