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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584
आईएसबीएन :978-1-61301-113

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


सुजान के सामने अब एक नई समस्या खड़ी हो गई थी। वह बहुत दिनों घर का स्वामी था। और अब भी ऐसा ही समझता था। परिस्थिति में कितना उलट फेर हो गया था। इसकी उसे खबर न थी। लड़के सेवा-सम्मान करते हैं, यह बात भ्रम में डाले हुए थी। लड़के उसके सामने चिलम नहीं पीते, खाट पर नहीं बैठते, क्या यह सब उसके गृहस्वामी होने का प्रमाण न था? पर आज उसे ज्ञात हुआ कि यह केवल श्रद्धा थी, उसके स्वामित्व का प्रमाण नहीं। क्या इस श्रद्धा के बदले वह अपना अधिकार छोड़ सकता था? कदापि नहीं। अब तक जिस घर में राज्य किया, उसी घर में पराधीन बनकर वह नहीं रह सकता। उसको श्रद्धा की चाह नहीं, सेवा की भीख नहीं उसे अधिकार चाहिए। वह इस घर पर दूसरों का अधिकार नहीं देख सकता। मंदिर का पुजारी बनकर वह नहीं रह सकता।

न-जाने कितनी रात बाकी थी। सुजान उठकर गँड़ासे से बैलों का चारा काटना शुरू किया। सारा गाँव सोता था, पर सुजान करबी काट रहे थे। इतना श्रम उन्होंने अपने जीवन में कभी न किया था। जब से उन्होंने काम करना छोड़ा था, बराबर चारे के लिए हाय-हाय पड़ी रहती थी। शंकर भी काटता था, भोला भी काटता था, पर चारा पूरा न पड़ता था। आज वह इन लौंड़ों को दिखा देंगे, चारा कैसे काटना चाहिए। उनके सामने कटिया का पहाड़ खड़ा हो गया और टुकड़े कितने महीने और सुडौल थे, मानो साँचे में ढाले गए हों!

मुँह-अँधेरे बुलाकी उठी, तो कटिया का ढेर देखकर दंग रह गई। बोली–क्या भोला आज रात भर कटिया ही काटता रह गया? कितना कहा कि बेटा जी से जहान है पर मानता ही नहीं। रात को सोया ही नहीं।

सुजान भगत ने ताने से कहा-वह सोता ही कब है? जब देखता हूँ, काम ही करता है। ऐसा कमाऊ संसार में और कौन होगा?

इतने में भोला आँखें मलता हुआ बोला–क्या शंकर आज बड़ी रात को ही उठा था, अम्माँ?

बुलाकी–वह तो पड़ा सो रहा है। मैंने सोचा तुमने काटी होगी।

मैं तो सबेरे उठ ही नहीं पाता दिन भर चाहे जितना काम कर लूँ, पर रात को मुझसे नहीं उठा जाता।

बुलाकी–तो क्या तुम्हारे दादा ने काटी है?

भोला–हाँ मालूम हो होता है। रात-भर सोए नहीं। मुझसे कल बड़ी भूल हुई। अरे! वह तो हल लेकर जा रहे हैं! जान देने पर उतारूँ हो गए हैं क्या?

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