कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह ) प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ
बुलाकी–क्रोधी तो सदा के हैं। अब किसी की सुनेंगे थोड़े ही।
भोला–शंकर को जगा दो, मैं भी जल्दी से मुँह-हाथ धोकर हल ले आऊँ।
जब और किसानों के साथ हल लेकर खेत पर पहुँचा, तो सुजान आधा खेत जोत चुके थे। भोला ने चुपके से काम करना शुरू किया। सुजान से कुछ बोलने की हिम्मत न पड़ी।
दोपहर हुआ। अभी किसानों ने हल छोड़ दिए। पर सुजान भगत अपने काम में मग्न हैं। भोला थक गया है। उसकी बार-बार इच्छा होती है कि बैलों को खोल दे मगर डर के मारे कुछ कह नहीं सकता, उसको आश्चर्य हो रहा है, कि दादा कैसे इतनी मेहनत कर रहे हैं।
आखिर डरते-डरते बोला दादा, अब दोपहर हो गई। हल खोल दे न?
सुजान–हाँ खोल दो। तुम बैलों को लेकर चलो मैं डांड़ फेंककर आता हूँ।
भोला–मैं संझा को डाँड़ फेंक दूँगा।
सुजान–तुम क्या फेंक दोगे? देखते नहीं खेत कटोरे की तरह गहरा हो गया है। तभी तो बीच में पानी जम जाता है। इसी गोइँड़ के खेत में बीस मन का बीघा होता था। तुम लोगों ने इसका सत्यानाश कर दिया।
बैल खोल दिए गए। भोला बैलों को लेकर घर चला; पर सुजान डांड़ फेकते रहे। आध घंटे के बाद डांड़ फेंककर वह घर आये, मगर थकान का नाम न था। नहा-खाकर आराम करने के बदले उन्होंने बैंलों को सुहलाना शुरू किया। उनकी पीठ पर हाथ फेरा, उनके पैर मले, पूछ सुहलायी। बैलों की पूँछें खड़ी थीं। सुजान की गोद में सिर रखे, उन्हें अकथनीय सुख मिल रहा था। बहुत दिनों के बाद आज उन्हें आनंद प्राप्त हुआ था। उनकी आँखों में कृतज्ञता भरी हुई थी। मानो वे कह रहे थे, हम तुम्हारे साथ दिन-रात काम करने को तैयार हैं।
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