कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह ) प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ
पंडितजी यों बहुत ही बलिष्ठ पुरुष थे, उन दोनों को एक धक्के में गिरा सकते थे। प्रातःकाल तीन पाव मोहनभोग और दो सेर दूध का नाश्ता करते थे। दोपहर के समय पाव भर घी दाल में खाते, तीसरे पहर दूधिया भंग छानते जिसमें सेर भर मलाई और आधा सेर बादाम मिला रहता। रात को डटकर ब्यालू करते; क्योंकि प्रातःकाल तक फिर कुछ न खाते थे। इस पर तुर्रा यह कि पैदल पग भर भी न चलते थे। पालकी मिले, तो पूछना ही क्या, जैसे घर का पलंग उड़ा जा रहा हो। कुछ न हो तो इक्का तो था ही; यद्यपि काशी में दो ही चार इक्केवाले ऐसे थे, जो उन्हें देखकर कह न दें कि ‘‘इक्का खाली नहीं है।’’ ऐसा मनुष्य नर्म अखाड़े में पकड़कर ऊपरवाले पहलवान को थका सकता था, चुस्ती और फुर्ती के अवसर पर तो वह रेत पर निकला हुआ कछुआ था।
पंडित जी ने एक बार कनखियों से दरवाजे की तरफ देखा। भागने का कोई मौका न था। कब उनमें साहस का संचार हुआ। भय की पराकाष्ठा ही साहस है। अपने सोंटे की तरफ हाथ बढ़ाया, और गरजकर बोले–निकल जाओ यहाँ से…
बात मुँह से पूरी न निकली थी कि लाठियों का वार पड़ा। पंडितजी मूर्च्छित होकर गिर पड़े। शत्रुओं ने समीप आकर देखा, जीवन का कोई लक्षण न था। समझ गए, काम तमाम हो गया। लूटने का तो विचार न था, पर जब कोई पूछनेवाला न हो तो हाथ बढ़ाने में क्या हर्ज? जो कुछ हाथ लगा; ले-देकर चलते हुए।
प्रातःकाल बूढ़ा भी उधर से निकला, तो सन्नाटा छाया हुआ था–न आदमी न आदमजात, छोलदारियाँ भी गायब! चकराया, यह माजरा क्या है? रात ही भर में अलादीन के महल की तरह सब-कुछ गायब हो गया। उन महात्माओं में से एक भी नहीं, जो प्रातः काल मोहनभोग उड़ाते और संध्या समय भंग घोटते दिखाई देते थे। जरा और समीप जाकर पंडित लीलाधर की रवटी में झाँका, तो कलेजा सन्न हो गया। पंडित जी जमीन पर मुर्दे की तरह पड़े हुए थे। मुँह पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। सिर के बालों में रक्त ऐसा जम गया था, जैसे किसी चित्रकार के ब्रश में रंग। सारे कपड़े लहूलुहान हो रहे थे। समझ गया, पंडित के साथियों ने उन्हें मारकर अपनी राह ली। सहसा पंडितजी के मुँह से कराहने की आवाज निकली। अभी जान बाकी थी। बूढ़ा तुरन्त दौड़ा हुआ गाँव में गया कई आदमियों को लाकर पंडितजी को अपने घर उठवा ले गया।
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