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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584
आईएसबीएन :978-1-61301-113

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


पंडितजी दवाएँ लेकर घर चले, तो हर्ष, उल्लास और विजय से उनका हृदय उछला पड़ता था। हनुमान भी संजीवनी बूटी लाकर इतने प्रसन्न न हुए होंगे। ऐसा सच्चा आनंद उन्हें कभी प्राप्त न हुआ था। उनके हृदय में इतने पवित्र भावों का संचार कभी न हुआ था।

दिन बहुत थोड़ा रह गया था। सूर्यदेव अविरल गति से पश्चिम की ओर दौड़ते चले जाते थे! क्या उन्हें भी किसी रोगी को दवा देनी थी? वह बड़े वेग से दौड़ते हुए पर्वत की ओट में छिप गए। पंडितजी और फुर्ती से पांव बढ़ाने लगे, मानो उन्होंने सूर्यदेव को पकड़ लेने की ठानी हो।

देखते-देखते अँधेरा छा गया। आकाश में दो एक तारे दिखाई देने लगे। अभी दस मील का मंजिल बाकी थी। जिस तरह काली घटा को सिर पर मँडलाते देखकर गृहिणी दौड़-दौड़कर सुखावन समेटने लगती है, उसी भाँति लीलाधर ने दौड़ना शुरू किया। उन्हें अकेले पड़ जाने का भय न था। भय था अँधेरे में राह भूल जाने का। दाहिने-बाँए बस्तियाँ छूटती जाती थीं। पंडितजी को ये गाँव के इस समय बहुत सुहावने मालूम होता थे। कितने आनंद से लोग अलाव के सामने बैठे ताप रहे हैं।

सहसा उन्हें एक कुत्ता दिखाई दिया। न जाने किधर से आकर वह उनके सामने पगडंडी पर चलने लगा। पंडितजी चौक पड़े पर एक क्षण में उन्होंने कुत्ते को पहचान लिया। वह बूढ़े चौधरी का कुत्ता मोती था। वह गाँव छोड़कर आज इधर इतनी दूर कैसे आ निकला? क्या वह जानता था कि पंडितजी दवा लेकर आ रहे होंगे, कहीं रास्ता न भूल जायँ? कौन जानता है कि पंडितजी ने एक बार ‘मोती’ कहकर पुकारा, तो कुत्ते ने दुम हिलायी पर रुका नहीं। वह इससे अधिक परिचय देकर समय नष्ट नहीं करना चाहता था। पंडितजी को ज्ञान हुआ कि ईश्वर मेरे साथ है, वही मेरी रक्षा कर रहे हैं। अब उन्हें कुशल से घर पहुँचने का विश्वास हो गया।

दसबजते-बजते पंडितजी घर पहुँच गए।

रोग घातक न था, पर यश पंडितजी को बदा था। एक सप्ताह के बाद तीनों चंगे हो गए। पंडितजी की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। उन्होंने यम देवता से घोर संग्राम करके इन आदमियों को बचा लिया था। उन्होंने देवताओं पर भी विजय पा ली थी–असम्भव को सम्भव कर दिखाया था। वह साक्षात भगवान थे उनके दर्शनों के लिए लोग दूर-दूर के आने लगे। किन्तु पंडितजी को अपनी कीर्ति से इतना आनंद न होता था, जितना रोगियों को चलते-फिरते देखकर।

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