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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584
आईएसबीएन :978-1-61301-113

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


बुद्धू ने आहत भेड़ों की ओर देखते हुए कहा–झींगुर, तुमने यह अच्छा काम नहीं किया। पछताओगे!

केले को काटना भी इतना आसान नहीं, जितना किसान से बदला लेना। उसकी सारी कमाई खेतों में रहती है, या खलियानों में। कितनी ही दैविक और भौतिक आपदाओं के बाद कहीं अनाज घर में आता है। और, जो कहीं इन आपदाओं के साथ विद्रोह ने भी संधि कर ली, तो बेचारा किसान कहीं का नहीं रहता। झींगुर ने घर आकर दूसरों से इस संग्राम का वृत्तांत कहा, तो लोग समझाने लगे–झींगुर, तुमने बड़ा अनर्थ किया। जानकर अनजान बनते हो! बुद्धू को जानते नहीं कितना झगड़ालूँ आदमी है। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा। जाकर उसे मना लो, नहीं तो तुम्हारे साथ सारे गाँव पर आफत आ जाएगी। झींगुर की समझ में बात आयी। पछताने लगा कि मैंने कहाँ-से-कहाँ उसे रोका। अगर थोड़ें बहुत चर ही जातीं तो कौन-सा मैं उजड़ा जाता था। वास्तव में हम किसानों का कल्याण दबे रहने में ही है। ईश्वर को भी हमारा सिर उठाकर चलना अच्छा नहीं लगता। जी तो बुद्धू के घर जाने को न चाहता था, किंतु दूसरों के आग्रह से मजबूर होकर चला।

अगहन का महीना था, कुहरा पड़ रहा था। चारों ओर अंधकार छाया हुआ था। गाँव से बाहर निकला ही था कि सहसा अपने ऊख के खेत की ओर अग्नि की ज्वाला देखकर चौंक पड़ा। छाती धड़कने लगी। खेत में आग लगी हुई थी। बेतहाशा दौड़ा। मनाता जाता था कि मेरे खेत में न हो। पर ज्यों-ज्यों समीप पहुँचता था, यह आशामय भ्रम शांत होता जाता था। वह अनर्थ हो ही गया, जिसके निवारण के लिए वह घर से चला था। हत्यारे ने आग लगा ही दी, और मेरे पीछे सारे गाँव को चौपट किया। उसे ऐसा जान पड़ता था कि वह खेत आज बहुत समीप आ गया है। मानो बीच के परती खेतों का अस्तित्व ही नहीं रहा था। अंत में जब वह खेत पर पहुँचा, तो आग प्रचंड रूप धारण कर चुकी थी।

झींगुर ने ‘हाय-हाय’ मचाना शुरू किया। गाँव के लोग दौड़ पड़े, और खेतों से अरहर के पौधे उखाड़-उखाड़कर आग को पीटने लगे। अग्नि-मानव-संग्राम का भीषण दृश्य उपस्थित हो गया। एक पहर तक हाहाकार मचा रहा। कभी एक पक्ष प्रबल होता था, कभी दूसरा। अग्नि-पक्ष के योद्धा मर-मरकर जी उठते थे, और द्विगुण शक्ति से रणोन्मत होकर शस्त्र-प्रहार करने लगते थे। मानव पक्ष में जिस योद्धा की कीर्ति सबसे उज्जवल थी, वह बुद्धू था। बुद्धू कमर तक धोती चढ़ाये, प्राण हथेली पर लिये अग्निराशि में कूद पड़ता था, और शत्रुओं को परास्त करके बाल-बाल बचकर निकल जाता था। अंत में मानव-दल की विजय हुई; किंतु ऐसी विजय जिस पर हार भी हँसती। गाँव-भर की ऊख जलकर भस्म हो गई, और ऊख के साथ सारी अभिलाषाएँ भी भस्म हो गईं।

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