कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह) प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ
माता ने बहू की तरफ मर्मान्तक दृष्टि से देखा और बोली–क्यों भैया। यह गाँव लिया तो था तुमने उन्हीं के रुपये से और उन्हीं के वास्ते?
मुंशीजी–लिया था तब लिया था। अब मुझसे ऐसा आबाद और मालदार गांव नहीं छोड़ा जाता। वह मेरा कुछ नहीं कर सकतीं। मुझसे अपना रुपया भी नहीं ले सकतीं। डेढ़ सौ गाँव तो हैं। तब भी हवस नहीं मानती।
माता–बेटा, किसी के धन ज्यादा होता है, तो वह फेंक थोडे़ ही देता है। तुमने अपनी नीयत बिगाड़ी, यह अच्छा काम नहीं किया। दुनिया तुम्हें चाहे कहे या न कहे, तुमको भला ऐसा चाहिए कि जिसकी गोद में इतने पले, जिसका इतने दिनों तक नमक खाया, अब उसी से दगा करो? नारायण ने तुम्हें क्या नहीं दिया। मजे से खाते हो, पहनते हो, घर में नारायण का दिया चार पैसा है, बाल-बच्चे हैं। और क्या चाहिए? मेरा कहना मानो, इस कंलक का टीका अपने माथे न लगाओ। यह अजस मत लो। बरकत अपनी कमाई में होती है, हराम की कौड़ी कभी नहीं फलती।
मुंशीजी–ऊँह! ऐसी बातें बहुत सुन चुका हूँ। दुनियाँ उन पर चलने लगे, तो सारे काम बन्द हो जायँ! मैंने इतने दिनों तक इनकी सेवा की। मेरी ही बदौलत ऐसे-ऐसे चार-पाँच गाँव बढ़ गए। जब तक पंडित जी थे। मेरी नीयत का मान था। मुझे आँख में धूल डालने की जरूरत न थी, वे आप ही मेरी खातिर कर दिया करते थे। उन्हें मरे आठ साल हो गए, मगर मुसम्मात के एक बीड़े पान की कसम खाता हूँ। मेरी जात से उनकी हजारों रुपये मासिक की बचत होती थी। क्या उनकों इतनी समझ भी न थी कि यह बेचारा जो इतनी ईमानदारी से मेरा काम करता है, इस नफे में कुछ उसे भी मिलना चाहिए? हक कहकर न दो, इनाम कहकर दो, किसी तरह तो दो। मगर वें तो समझती थीं कि मैंने इसे बीस रुपये महीने पर मोल लिया है। मैंने आठ साल तक सब्र किया, अब क्या इसी बीस रुपये में गुलामी करता रहूँ। और अपने बच्चों को दूसरों का मुँह ताकने के लिए छोड़ जाऊँ? अब मुझे यह अवसर मिला है। इसे क्यों छोड़ू? जमींदारी की लालसा लिए हुए क्यों मरूँ? जब तक जीऊँगा, खुद खाऊँगा, मेरे पीछे मेरे बच्चे चैन उड़ाएँगे।
माता की आंखों में आँसू भर आए। बोली–बेटा, मैंने तुम्हारे मुँह से ऐसी बातें कभी नहीं सुनी थीं। तुम्हें क्या हो गया है? तुम्हारे बाल-बच्चे हैं। आग में हाथ न डालों!
बहू ने सास की ओर देखकर कहा–हमको ऐसा धन न चाहिए, हम अपनी दाल-रोटी ही में मगन हैं।
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