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प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


जयराम ने कहा–कह क्या देंगे, अपने ही तो हैं। हमने जो कुछ किया है, वह सबके लिए किया है, केवल अपनी ही भलाई के लिए नहीं। चलो यार, तुम्हें बाजार की सैर करा दें, मुँह मीठा करा दें।

बाजबहादुर ने कहा–नहीं, मुझे आज घर पर पाठ याद करने का अवकाश नहीं मिला। यहीं बैठकर पढ़ूंगा।

जगतसिंह–अच्छा, मुंशीजी से कहोगे तो न?

बाजबहादुर–मैं स्वयम् कुछ न कहूँगा, लेकिन उन्होंने मुझसे पूछा तो?

जगतसिंह–कह देना, मुझे नहीं मालूम।

बाजबहादुर–यह झूठ मुझसे न बोला जाएगा।

जयराम–अगर तुमने चुगली खायी और हमारे ऊपर मार पड़ी, तो हम तुम्हें पीटे बिना न छोड़ेंगे।

बाजबहादुर–हमने कह दिया कि चुगली न खायँगे, लेकिन मुंशीजी ने पूछा, तो झूठ भी न बोलेंगे।

जयराम–तो हम तुम्हारी हड्डियाँ भी तोड़ देंगे।

बाजबहादुर–इसका तुम्हें अधिकार है।

दस बजे जब मदरसा लगा और मुंशी भवानीसहाय ने बाग की यह दुर्दशा देखी, तो क्रोध से आग हो गए। बाग के उजड़ने का इतना खेद न था, जितना लड़कों की शरारत का। यदि किसी साँड़ ने यह दुष्कृत्य किया होता, तो वह केवल हाथ मलकर रह जाते। किंतु लड़कों के इस अत्याचार को सहन न कर सके। ज्यों ही लड़के दरजे में बैठ गए, वह तेवर बदले हुए आए और पूछा–यह बाग किसने उजाड़ा है?

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