कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह) प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ
कमरे में सन्नाटा छा गया। अपराधियों के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। मिडिल कक्षा के २५ विद्यार्थियों में कोई ऐसा न था, जो इस घटना को न जानता हो, किंतु किसी में यह साहस न था कि उठकर साफ-साफ कह दे। सबके-सब सिर झुकाए मौन धारण किए बैठे थे।
मुंशीजी का क्रोध और भी प्रचंड हुआ। चिल्लाकर बोले–मुझे विश्वास है कि यह तुम्हीं लोगों में से किसी की शरारत है। जिसे मालूम हो, स्पष्ट कह दे, नहीं तो मैं एक सिरे से पीटना शुरू करूँगा, फिर कोई यह न कहे कि हम निरपराध मारे गए।
एक लड़का भी न बोला। वही सन्नाटा!
मुंशीजी–देवीप्रसाद, तुम जानते हो?
देवी–जी नहीं, मुझे कुछ नहीं मालूम।
‘शिवदत्त, तुम जानते हो?’
‘जी नहीं, मुझे कुछ नहीं मालूम।’
‘बाजबहादुर, तुम कभी झूठ नहीं बोलते, तुम्हें मालूम है?’
बाजबहादुर खड़ा हो गया, उसके मुख-मंडल पर वीरत्व का प्रकाश था। नेत्रों में साहस झलक रहा था। बोला–जी हाँ!
मुंशीजी ने कहा–शाबाश!
अपराधियों ने बाजबहादुर की ओर रक्तवर्ण आँखों से देखा और मन में कहा–अच्छा!
भवानीसहाय बड़े धैर्यवान मनुष्य थे। यथाशक्ति लड़कों को यातना नहीं देते थे, किन्तु ऐसी दुष्टता का दंड देने में वह लेश-मात्र भी दया न दिखाते थे। छड़ी मँगाकर पाँचों अपराधियों को दस-दस छड़ियाँ लगायीं, सारे दिन बेंच पर खड़ा रखा और चाल-चलन के रजिस्टर में उनके नाम के सामने काले चिह्न बना दिए।
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