कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह) प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ
दो साल का लहलहाता हुआ सुन्दर पौधा मुरझा गया। वह बालक जिसे गोद में उठाते ही नरमी, गरमी और भारीपन का अनुभव होता था, अब सूखकर काँटा हो गया था। सुखदा अपने बच्चे की यह दशा देखकर भीतर-ही-भीतर कुढ़ती और अपनी मूर्खता पर पछताती। इंद्रमणि जो शांतिप्रिय आदमी थे, अब बालक को गोद से अलग न करते थे, उसे रोज साथ हवा खिलाने ले जाते थे, नित्य नये खिलौने लाते थे, पर वह मुरझाया हुआ पौधा किसी तरह भी न पनपता था। दाई उसके लिए संसार का सूर्य थी। उस स्वाभाविक गर्मी और प्रकाश से वंचित रहकर हरियाली की बाहर कैसे दिखाता? दाई के बिना उसे अब चारों ओर अँधेरा और सन्नाटा दिखाई देता था। दूसरी अन्ना तीसरे ही दिन रख ली गई थी। पर रुद्र उसकी सूरत देखते ही मुँह छिपा लेता था, मानो वह कोई डाइन या चुड़ैल है।
प्रत्यक्ष रूप में दाई को न देखकर रुद्र उसकी कल्पना में मग्न रहता। वहाँ उसकी अन्ना चलती-फिरती दिखाई देती थी। उसके वही गोद थी, वही स्नेह, वही प्यारी-प्यारी बातें, वही प्यारे गाने, वही मजेदार मिठाइयाँ, वही सुहावना संसार, वही आनंदमय जीवन। अकेले बैठकर कल्पित अन्ना से बातें करता, अन्ना कुत्ता भूके। अन्ना, गाय दूध देती। अन्ना, उजला-उजला घोड़ा दौड़े। सबेरा होते ही लोटा लेकर दाई की कोठरी में जाता और कहता–अन्ना, पानी। दूध का गिलास लेकर उसकी कोठरी में रख आता और कहता–अन्ना, दूध पिला। अपनी चारपाई पर तकिया रखकर चादर से ढाँक देता और कहता–अन्ना सोती है। सुखदा जब खाने बैठती, तो कटोरे उठा-उठाकर अन्ना की कोठरी में ले जाता और कहता–अन्ना, खाना खाएगी। अन्ना अब उसके लिए एक स्वर्ग की वस्तु थी, जिसके लौटने की अब उसे बिलकुल आशा न थी। रुद्र के स्वभाव में धीरे-धीरे बालकों को चपलता और सजीवता की जगह एक निराशाजनक धैर्य, एक आनंद-विहीन शिथिलता दिखाई देने लगी।
इस तरह तीन हफ्ते गुजर गए। बरसात का मौसम था। कभी बेचैन करने वाली गर्मी, कभी हवा के ठंडे झोंके। बुखार और जुकाम का जोर था। रुद्र की दुर्बलता इस ऋतु-परिवर्तन को बर्दाश्त न कर सकी। सुखदा उसे फलालैन का कुर्ता पहनाए रखती थी। उसे पानी के पास नहीं जाने देती। नंगे पैर एक कदम भी नहीं चलने देती। पर सर्दी लग ही गई। रुद्र को खाँसी और बुखार आने लगा।
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