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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


प्रभात का समय था। रुद्र चारपाई पर आँख बंद किए पड़ा था। डाक्टरों का इलाज निष्फल हुआ। सुखदा चारपाई पर बैठी उसकी छाती में तेल मालिश कर रही थी और इंद्रमणि विषाद की मूर्ति बने हुए करुणापूर्ण आँखों से बच्चे को देख रहे थे। इधर सुखदा से बहुत कम बोलते थे। उन्हें उससे एक तरह की घृणा-सी हो गई थी। वह रुद्र की बीमारी का एकमात्र कारण उसी को समझते थे। वह उनकी दृष्टि में बहुत नीच स्वभाव की स्त्री थी। सुखदा ने डरते-डरते कहा–आज बडे़ हाकिम साहब को बुला लेते, शायद दवा से फायदा हो।

इंद्रमणि ने काली घटाओं की ओर देखकर रुखाई से जबाव दिया–बड़े हाकिम नहीं, यदि धन्वंतरि भी आएँ, तो भी उसे कोई फायदा न होगा।

सुखदा ने कहा–तो क्या अब किसी की दवा न होगी?

इंद्रमणि–बस, इसकी एक ही दवा है, जो अलभ्य है।

सुखदा–तुम्हें तो बस, वही धुन सवार है। क्या बुढ़िया आकर अमृत पिला देगी?

इंद्रमणि–वह तुम्हारे लिए चाहे विष हो, पर लड़के के लिए अमृत ही होगी।

सुखदा–मैं नहीं समझती कि ईश्वरेच्छा उसके अधीन है।

इंद्रमणि–यदि नहीं समझती हो और अब तक नहीं समझीं तो रोओगी। बच्चे से भी हाथ धोना पड़ेगा।

सुखदा–चुप भी रहो, क्या अपशकुन मुंह से निकालते हो। यदि ऐसी ही जली-कटी सुनाना है, तो बाहर चले जाओ।

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