लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

358 पाठक हैं

मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


एकाएक भानुकुँवरि घूँघट निकाले इजलास पर आकर खड़ी हो गई। जानेवाले लौट पड़े। जो बाहर निकल गए थे, दौड़कर आ गए और कौतूहल-पूर्वक भानुकुँवरि की तरफ ताकने लगे।

भानुकुँवरि ने कंपित स्वर में जज से कहा–सरकार, यदि हुक्म दें तो मैं मुंशीजी से कुछ पूछूँ?

यद्यपि यह बात नियम के विरुद्ध थी, तथापि जज ने दयापूर्वक आज्ञा दे दी।

तब भानुकुँवरि ने सत्यनारायण की तरफ देखकर कहा–लालाजी! सरकार ने तुम्हारी डिग्री तो कर दी, गाँव तुम्हें मुबारक रहे; मगर ईमान आदमी का सब-कुछ होता है। ईमान से कह दो; गांव किसका है?

हजारों आदमी यह प्रश्न सुनकर कौतूहल से सत्यनारायण की तरफ देखने लगे। मुंशीजी विचार-सागर में डूब गए। हृदय-क्षेत्र में संकल्प और विकल्प में घोर संग्राम होने लगा। हजारों मनुष्य की आँखें उनकी तरफ जमी हुई थीं। यथार्थ अब बात किसी से छिपी न थी। इतने आदमियों के सामने असत्य बात मुँह से न निकल सकी। लज्जा ने जबान बंद कर ली, ‘मेरा’ कहने में काम बनता था। कोई बाधा न थी। किन्तु घोरतम पाप का जो दंड समाज दे सकता है, उसके मिलने का पूरा भय था। ‘आपका’ कहने से काम बिगड़ता था। जीती-जितायी बाजी हाथ से जाती थी। पर सर्वोत्कृष्ट काम के लिए समाज से जो इनाम मिल सकता है, मिलने की पूरी आशा थी। आशा ने भय को जीत लिया। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे ईश्वर ने मुझे अपना मुख उज्जवल करने का यह अंतिम अवसर दिया है। मैं अब भी मानव-सम्मान का पात्र बन सकता हूं। अब भी अपनी रक्षा कर सकता हूँ। उन्होंने आगे बढ़कर भानुकुँवरि को प्रणाम किया और काँपते हुए स्वर में बोले–आपका।

हजारों मनुष्यों के मुँह से एक गगनस्पर्शी ध्वनि निकली–सत्य की जय!

जज ने खड़े होकर कहा–यह कानून का न्याय नहीं, ‘ईश्वरीय न्याय’ है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book