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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


इसे कथा न समझिए, सच्ची घटना है। भानुकुँवरि और सत्यनारायण अब भी जीवित हैं। मुंशीजी के इस नैतिक साहस पर लोग मुग्ध हो गए। मानवी न्याय पर ईश्वरीय न्याय ने जो विलक्षण विजय पायी, उसकी चर्चा शहर-भर में महीनों रही। भानुकुँवरि मुंशीजी के घर गयीं। उन्हें मनाकर लायीं। फिर अपना कारोबार उन्हें सौंपा और कुछ दिनों के उपरांत वह गाँव उन्हीं के नाम हिब्बा कर दिया। मुंशीजी ने भी उसे अपने अधिकार में रखना उचित न समझा। कृष्णार्पण कर दिया। अब इसकी आमदनी दीन-दुखियों और विद्यार्थियों की सहायता में खर्च होती है।

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शंखनाद

भानु चौधरी अपने गाँव के मुखिया थे। गाँव में उनका बड़ा मान था। दारोगाजी उन्हें टाट बिना जमीन पर बैठने न देते। मुखिया साहब की ऐसी धाक बँधी हुई थी कि उनकी मर्जी बिना गांव में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता था। कोई घटना चाहे वह सास-बहू का विवाद हो, चाहे मेंड़ या खेत का झगड़ा, चौधरी साहब के शासनाधिकार को पूर्णरूप से सचेत करने के लिए काफी थी। वह तुरन्त घटनास्थल पर जा पहुँचते। तहकीकात होने लगती, गवाह और सबूत के सिवा किसी अभियोग को सफलता-सहित चलाने में जिन बातों की ज़रूरत होती है, उन सब पर विचार होता और चौधरी जी के दरबार से फैसला हो जाता। किसी को अदालत तक जाने की ज़रूरत न पड़ती। हाँ, इस कष्ट के लिए चौधरी साहब कुछ फीस ज़रूर ले लेते थे। यदि किसी अवसर पर फीस मिलने में असुविधा के कारण उन्हें धीरज से काम लेना पड़ता, तो गांव में आफत आ जाती थी, क्योंकि उनके धीरज और दारोगाजी के क्रोध में कोई घनिष्ठ सम्बन्ध था। सारांश यह है कि चौधरीजी से उनके दोस्त-दुश्मन सभी चौकन्ने रहते थे।

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