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प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


लड़कों को अपने माता-पिता से वह प्रेम नहीं होता, जो लड़कियों को होता है। गंगाजली इस सोच-विचार में मग्न रहती कि दादा की किस भाँति सहायता करूँ। यदि हम सब भाई-बहन मिलकर जीतनसिंह के पास जाकर दया-भिक्षा की प्रार्थना करें, तो वे अवश्य मान जायँगे; परन्तु दादा को कब यह स्वीकार होगा? वह यदि एक बड़े साहब के पास चले जायँ, तो सब कुछ बात-की-बात में बन जाए। किन्तु उनकी तो जैसे बुद्धि मारी गई है। इसी उधेड़बुन में उसे एक उपाय सूझ पड़ा, कुम्हलाया हुआ मुखारविंद खिल उठा।

पुजारीजी सुक्खू चौधरी के पास से उठकर चले गये थे और चौधरी उच्च स्वर से अपने सोए देवताओं को पुकार-पुकार बुला रहे थे। निदान गंगाजली उनके पास जाकर खड़ी हो गई। चौधरी ने उसे देखकर विस्मित स्वर में पूछा–क्यों बेटी! इतनी रात गए क्यों बाहर आयी!

गंगाजली ने कहा–बाहर रहना तो भाग्य में लिखा है, घर में कैसे रहूँ!

सुक्खू ने जोर की हाँक लगायी–कहाँ गए तुम कृष्ण मुरारी, मेरे दुःख हरो।

गंगाजली खड़ी थी, बैठ गई और धीरे से बोली–भजन गाते तो आज तीन दिन हो गए। घर बचाने का कुछ उपाय सोचा कि इसे यों ही मिट्टी में मिला दोगे? हम लोगों को क्या पेड़-तले रखोगे?

चौधरी ने व्यथित स्वर से कहा–बेटी! मुझे तो कोई उपाय नहीं सूझता। भगवान् जो चाहेंगे, होगा। वेग चलो गिरधर गोपाल, काहे विलंब करो।

गंगाजली ने कहा–मैंने एक उपाय सोचा है, कहो तो कहूँ।

चौधरी उठकर बैठ गए और पूछा–कौन उपाय है बेटी?

गंगाजली ने कहा–मेरे गहने झगड़ू साहू के यहाँ गिरों रख दो। मैंने जोड़ लिया है। देने भर के रुपये हो जाएँगे।

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