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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


चौधरी निरुत्तर हो गए। गंगाजली घर में जाकर गहनों की पिटारी लायी और एक-एक करके सब गहने चौधरी के अँगोछे में बाँध दिये। चौधरी ने आंख में आंसू भरकर कहा–हाय राम! इस शरीर की क्या गति लिखी है। यह कह कर उठे। बहुत सम्हालने पर भी आँखों में आँसू न छिपे।

रात का समय था। बेतवा नदी के किनारे-किनारे मार्ग को छोड़कर सुक्खू चौधरी गहनों की गठरी काँख में दबाए इस तरह चुपके-चुपके चल रहे थे, मानो पाप की गठरी लिये जाते हैं। जब वह झगड़ू साहू के मकान के पास पहुंचे, तो ठहर गए, आँखें खूब साफ कीं, जिसमें किसी को यह बोध न हो कि चौधरी रोता था।

झगड़ू साहू धागे की कमानी की एक मोटी ऐनक लगाए, बही-खाता फैलाए हुक्का पी रहे थे और दीपक के धुँले प्रकाश में उन अक्षरों के पढ़ने की व्यर्थ चेष्टा में लगे थे, जिनमें स्याही की बहुत किफायत की गई थी। बार-बार ऐनक को साफ करते और आँख मलते, पर चिराग की बत्ती उकसाना या दोहरी बत्ती लगाना शायद इसलिए उचित नहीं समझते थे कि तेल का अपव्यय होगा। इसी समय सुक्खू चौधरी ने आकर कहा–जै रामजी!

झगड़ू साहू ने देखा। पहचान कर बोले जय राम चौधरी! कहो, मुकदमें में क्या हुआ? यह लेन-देन बड़े झंझट का काम है। दिन-भर सिर उठाये छुट्टी नहीं मिलती।

चौधरी ने पोटली को खूब सावधानी से छिपाकर लापरवाही के साथ कहा–अभी तक तो कुछ नहीं हुआ। कल इजराय डिगरी होनेवाली है। ठाकुर साहब ने न जाने कब का बैर निकाला है। हमको दो-तीन दिन की भी मुहलत होती, तो डिगरी न जारी होने पाती। छोटे साहब और बड़े साहब दोनों हमको अच्छी तरह जानते हैं। अभी इसी साल मैंने उनसे नदी-किनारे घंटों बातें कीं, किंतु एक तो बरसात के दिन, दूसरे एक दिन की भी मुहलत नहीं, क्या करता। इस समय मुझे रुपयों की चिंता है।

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