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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


यकायक उन्हें सामने घास पर कागज की एक पुड़िया दिखाई दी। माया ने जिज्ञासा की आड़ में कहा–देखे इसमें क्या है?

बुद्धि ने कहा–तुमसे मतलब? पड़ी रहने दो।

लेकिन जिज्ञासा-रूपी माया की जीत हुई। ब्रजनाथ ने उठ, पुड़िया उठा ली। कदाचित् किसी के पैसे पुड़िया में लिपटे गिर पड़े हैं। खोलकर देखा, वे सावरेन थे! गिना, पूरे आठ निकले। कुतूहल की सीमा न रही।

ब्रजनाथ की छाती धड़कने लगी। आठों सावरेन हाथ में लिये वे सोचने लगे–उन्हें क्या करूँ? अगर यहीं रख दूँ, तो न जाने किसकी नजर पड़े, न मालूम कौन उठा ले जाय! नहीं, यहाँ रखना उचित नहीं, चलूँ थाने में इसकी इत्तिला कर दूँ और ये सावरेन थानेदार को सौंप दूँ। जिसके होंगे, वह आप ले जाएगा या अगर उसे न भी मिले, तो मुझ पर कोई दोष न रहेगा; मैं तो अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाऊँगा।

माया ने पर्दे की आड़ से मंत्र मारना प्रारम्भ किया। वे थाने न गये; सोचा, चलूँ, भामा से एक दिल्लगी करूँ। भोजन तैयार होगा। कल इतमीनान से थाने जाऊँगा।

भामा ने सावरेन देखे, हृदय में एक गुदगुदी-सी हुई। पूछा–किसकी हैं?

‘मेरी।’

‘चलो, कहीं हो न।’

‘पड़ी मिली है।’

‘झूठी बात। ऐसे ही भाग्य के बली हो तो सच बताओ, कहाँ मिलीं? किसकी हैं?’

‘सच कहता हूँ, पड़ी मिली हैं।’

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