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प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


‘मेरी कसम?’

‘तुम्हारी कसम।’

भामा गिन्नियों को पति के हाथ से छीनने की चेष्टा करने लगी।

ब्रजनाथ ने कहा–क्यों छीनती हो?

भामा–लाओ, मैं अपने पास रख लूँ।

‘रहने दीजिए, मैं इनकी इत्तिला करने थाने जाता हूँ।’

भामा का मुख मलिन हो गया। बोली–पड़े हुए धन की क्या इत्तिला?

ब्रजनाथ–हाँ और क्या, इन आठ गिन्नियों के लिए ईमान बिगाड़ूँ न?

भामा–अच्छा, तो सबेरे चले जाना। इस समय जाओगे, तो आने में देरी होगी।

ब्रजनाथ ने भी सोचा, यही अच्छा है, थानेवाले रात को तो कोई कार्रवाई करेंगे नहीं। जब अशर्फियों को पड़ा ही रहना है, तब जैसे थाना वैसे मेरा घर।

गिन्नियाँ संदूक में रख दीं। खा-पीकर लेटे तो भामा ने हँसकर कहा–आया धन क्यों छोड़ते हो, लाओ मैं अपने लिए एक गुलूबंद बनवा लूँ, बहुत दिनों से जी तरस रहा है।

माया ने इस समय हास्य का रूप धारण किया था।

ब्रजनाथ ने तिरस्कार करके कहा–गुलूबंद की लालसा में गले में फाँसी लगाना चाहती हो क्या?

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