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प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


उसने कहा–बाबूजी, घर-भर के प्राणी घबराए हैं, जरा एक निगाह देख लीजिए।

निदान ब्रजनाथ ने झुँझलाकर उसके हाथ से तार ले लिया और सरसरी दृष्टि से देखकर बोले–कलकत्ते से आया है, माल नहीं पहुँचा।

कुँजड़े ने डरते-डरते कहा–बाबूजी, इतना और देख लीजिए कि किसने भेजा है।

इस पर ब्रजनाथ ने तार को फेंक दिया और बोले–मुझे इस वक्त फुरसत नहीं है।

आठ बज गए। ब्रजनाथ को निराशा होने लगी। मन्नू इतनी रात बीते नहीं जा सकता। मन में निश्चय किया, मुझे आप ही जाना चाहिए; बला से बुरा मानेंगे। इसकी कहाँ तक चिंता करूँ? स्पष्ट कह दूँगा, मेरे रुपये दे दो। भलमनसी भलेमानसों से निभायी जा सकती हैं। ऐसे धूर्तों के साथ भलमनसी का व्यवहार करना मूर्खता है। अचकन पहनी। घर में जाकर भामा से कहा–जरा एक काम से बाहर जाता हूँ, किवाड़ बन्द कर लो।

चलने को तो चले, लेकिन पग-पग पर रुकते जाते थे। गोरेलाल का घर दूर से दिखाई दिया; लैम्प जल रहा था। ठिठक गए और सोचने लगे–चल रहा क्या कहूँगा। कहीं उन्होंने जाते-जाते रुपये निकालकर दे दिये और देरी के लिए क्षमा माँगी, तो मुझे बड़ी झेंप होगी। वे मुझे क्षुद्र, ओछा, धैर्यहीन समझेंगे। नहीं, रुपये की बातचीत करूँ ही क्यों? कहूँगा, भाई घर में बड़ी देर से पेट दर्द कर रहा है, तुम्हारे पास पुराना तेज सिरका तो नहीं है। मगर नहीं, यह बहाना कुछ भद्दा-सा प्रतीत होता है। साफ कलई खुल जाएगी। उँह! इस झंझट की जरूरत ही क्या है? वे मुझे देखकर खुद ही समझ जाएँगे। इस विषय में बातचीत की कुछ नौबत ही न आएगी। ब्रजनाथ इसी उधेड़बुन में आगे चले जाते थे, जैसे नदी की लहरें चाहे किसी ओर चलें, धारा अपना मार्ग नहीं छोड़ती।

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