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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


आठ दिन पूरे हो गए। अंतिम दिन आया। प्रभात का समय था। भामा ने ब्रजनाथ को दवा पिलायी और दोनों बालकों को लेकर दुर्गाजी की पूजा करने मंदिर में चली। उसका हृदय आराध्य देवी के प्रति श्रद्धा से परिपूर्ण था। मंदिर के आँगन में पहुँची। उपासक आसनों पर बैठे दुर्गापाठ कर रहे थे। धूप और अगर की सुगंधि उड़ रही थी। उसने मंदिर में प्रवेश किया। सामने दुर्गा की विशाल प्रतिमा शोभायमान थी। उसके मुखारविंद से एक विलक्षण दीप्ति झलक रही थी। बड़े उज्ज्वल नेत्रों से प्रभा की किरणें आलोकित हो रही थीं। पवित्रता का एक समाँ-सा छाया हुआ था। भामा इस दीप्तिपूर्ण मूर्ति के सम्मुख सीधी आँखों से ताक न सकी। उसके अंत:करण में एक निर्मल विशुद्ध; भावपूर्ण भय उदय हो गया। उसने आँखें बन्द कर लीं, घुटनों के बल बैठ गई और कर जोड़कर करुण स्वर में बोली–माता! मुझ पर दया करो।

उसे ऐसा ज्ञात हुआ, मानो देवी मुस्करायीं। उसे उन दिव्य नेत्रों से एक ज्योति-सी निकलकर अपने हृदय में आती हुई मालूम हुई। उसके कानों में देवी के मुँह से निकले ये शब्द सुनाई दिये–पराया धन लौटा दे, तेरा भला होगा।

भामा उठ बैठी। उसकी आँखों में निर्मल भक्ति का आभास झलक रहा था। मुखमंडल से पवित्र प्रेम बरसा पड़ता था। देवी ने कदाचित् उसे अपनी प्रभा के रंग में डुबा दिया था।

इतने में दूसरी एक स्त्री आयी। उसके उज्ज्वल केश बिखरे और मुरझाएँ हुए चेहरे के दोनों ओर लटक रहे थे। शरीर पर केवल एक श्वेत साड़ी थी। हाथ में चूड़ियों के सिवा और कोई आभूषण न था। शोक और नैराश्य की साक्षात् मूर्ति मालूम होती थी। उसने भी देवी के सामने सिर झुकाया और दोनों हाथों से आँचल फैलाकर बोली–देवी, जिसने मेरा धन लिया हो, उसका सर्वनाश करो।

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