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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


जैसे सितार मिजराब की चोट खाकर थरथरा उठता है, उसी प्रकार भामा का हृदय अनिष्ट के भय से थरथरा उठा। ये शब्द तीव्र शर के समान उसके कलेजे में चुभ गए। उसने देवी की ओर कातर नेत्रों से देखा। उसका ज्योतिर्मय स्वरूप भयंकर था और नेत्रों से भीषण ज्वाला निकल रही थी। भामा के अंत:करण में सर्वत्र आकाश से, मन्दिर के सामने वाले वृक्षों से, मन्दिर के स्तम्भों से, सिंहासन के जलते हुए दीपक से और देवी के विकराल मुँह से ये शब्द निकलकर गूँजने लगे–पराया धन लौटा दे, नहीं तो तेरा सर्वनाश हो जाएगा।

भामा खड़ी हो गई और उस वृद्धा से बोली–क्यों माता! तुम्हारा धन किसी ने ले लिया है?

वृद्धा ने इस प्रकार उसकी ओर देखा, मानो डूबते को तिनके का सहारा मिला। बोली–हाँ बेटी।

‘कितने दिन हुए?’

‘कोई डेढ़ महीना।’

‘कितने रुपये थे?’

‘पूरे एक सौ बीस।’

‘कैसे खोए?’

‘क्या जाने, कहीं गिर गए। मेरे स्वामी पल्टन में नौकर थे, आज कई बरस हुए, वे परलोक सिधारे। अब मुझे सरकार से ६॰ रु. साल पेंशन मिलती है। अबकी दो साल की पेंशन एक साथ मिली थी। खजाने से रुपये लेकर आ रही थी। मालूम नहीं, कब और कहाँ गिर पड़े, आठ गिन्नियाँ थीं।’

‘अगर वे तुम्हें मिल जायँ तो क्या दोगी?’

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