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प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


जब ब्रजनाथ ने आठों गिन्नियां उसे दिखाईं थीं, उसके हृदय में एक गुदगुदी-सी हुई थी। लेकिन वह हर्ष मुख पर आने का साहस न कर सका था। आज उन गिन्नियों के हाथ से जाते समय उसका हार्दिक आनंद चमक रहा है, ओठों पर नाच रहा है, कपोलों को रँग रहा है और अंगों पर किलोलें कर रहा है। वह इंद्रियों का आनंद था, यह आत्मा का आनन्द है। वह आनंद लज्जा के भीतर छिपा हुआ था, यह आनन्द गर्व से बाहर निकल पड़ता है।

तुलसी का आशीर्वाद सफल हुआ। आज पूरे तीन सप्ताह के बाद ब्रजनाथ तकिए के सहारे बैठे थे! वे बार-बार भामा को प्रेमपूर्ण नेत्रों से देखते थे। वह आज उन्हें देवी मालूम होती थी। अब तक उन्होंने उसके बाह्य सौन्दर्य की शोभा देखी थी। आज वह उसका आत्मिक सौन्दर्य देख रहे हैं।

तुलसी का घर एक गली में था। इक्का सड़क पर जाकर ठहर गया। ब्रजनाथ इक्के पर से उतरे और अपनी छड़ी टेकते हुए भामा के हाथों से सहारे तुलसी के घर पहुँचे। तुलसी ने रुपये लिए और दोनों हाथ फैलाकर आशीर्वाद दिया–दुर्गाजी तुम्हारा कल्याण करें!

तुलसी का वर्णहीन मुख यों खिल गया, जैसे वर्षा के पीछे वृक्षों की पत्तियाँ खिल जाती हैं, सिमटा हुआ अंग फैल गया, गालों की झुर्रियाँ मिटती देख पड़ी। ऐसा मालूम होता था, मानो उसका कायाकल्प हो गया।

वहाँ से आकर ब्रजनाथ अपने द्वार पर बैठ हुए थे कि गोरेलाल आकर बैठ गए। ब्रजनाथ ने मुँह फेर लिया।

गोरेलाल बोले–भाई साहब, कैसी तबीयत है?

ब्रजनाथ–बहुत अच्छी तरह हूँ।

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