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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ

सेवा-मार्ग

तारा ने बारह वर्ष दुर्गा की तपस्या की। न पलंग पर सोयी, न केशो को सँवारा और न नेत्रों में सुर्मा लगाया। पृथ्वी पर सोती, गेरुआ वस्त्र पहनती और रूखी रोटियाँ खाती। उसका मुख मुरझाई हुई कली की भाँति था, नेत्र ज्योतिहीन और हृदय एक शून्य बीहड़ मैदान। उसे केवल यही लौ लगी थी कि दुर्गा के दर्शन पाऊँ। शरीर मोमबत्ती की तरह घुलता था, पर यह लौ दिल से नहीं जाती थी। यही उसकी इच्छा थी, यही उसका जीवनोद्देश्य। घर के लोग उसे पागल कहते। माता समझाती–‘बेटी, तुझे क्या हो गया है? क्या तू सारा जीवन रो-रोकर काटेगी? इस समय के देवता पत्थर के होते हैं। पत्थर को भी कभी किसी ने पिघलते देखा है? देख, तेरी सखियाँ पुष्प की भाँति विकसित हो रही हैं, नदी की तरह बढ़ रही हैं; क्या तुझे मुझ पर दया नहीं आती?’ तारा कहती–‘माता, अब तो जो लगन लगी, वह लगी। या तो देवी के दर्शन पाऊँगी या यही इच्छा लिये संसार से प्रयाण कर जाऊँगी। तुम समझ लो, मैं मर गई।’

इस प्रकार पूरे बारह वर्ष व्यतीत हो गये और तब देवी प्रसन्न हुईं। रात्रि का समय था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। मंदिर में एक धुँधला-सा घी का दीपक जल रहा था। तारा दुर्गा के पैरों पर माथा नवाए सच्ची भक्ति का परिचय दे रही थी। यकायक उस पाषाण मूर्ति देवी के तन में स्फूर्ति प्रकट हुई। तारा के रोंगटे खड़े हो गए। वह धुँधला दीपक देदीप्यमान हो गया। मंदिर में चित्ताकर्षक सुगंध फैल गई और वायु में सजीवता प्रतीत होने लगी। देवी का उज्जवल रूप चन्द्रमा की भाँति चमकने लगा। ज्योतिमय नेत्र जगमगा उठे। होंठ खुल गए। आवाज आयी–तारा; मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। माँग, क्या वर माँगती है?

तारा खड़ी हो गई। उनका शरीर इस भाँति काँप रहा था, जैसे प्रातःकाल के समय कंपित स्वर में किसी कृषक के गाने की ध्वनि। उसे मालूम हो रहा था, मानो वह वायु में उड़ी जा रही है। उसे अपने हृदय में उच्च विचार और पूर्ण प्रकाश का आभास प्रतीत हो रहा था। उसने दोनों हाथ जोड़कर भक्ति-भाव से कहा–भगवती तुमने मेरी बारह वर्ष की तपस्या पूरी की, किस मुख से तुम्हारा गुणानुवाद गाऊँ। मुझे संसार की वे अलभ्य वस्तुएँ प्रदान हो, जो इच्छाओं की सीमा और मेरी अभिलाषाओं का अंत है। मैं वह ऐश्वर्य चाहती हूँ, जो सूर्य को भी मात कर दे।

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