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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


देवी ने मुस्कराकर कहा–स्वीकृत है।

तारा–वह धन, जो काल-चक्र को भी लज्जित करे।

देवी ने मुस्कराकर कहा–स्वीकृत है।

तारा–वह सौंदर्य, जो अद्वितीय हो।

देवी ने मुस्कराकर कहा–यह भी स्वीकृत है।

तारा कुंवरि ने शेष रात्रि जागकर व्यतीत की। प्रभात काल के समय उसकी आँखें क्षण-भर के लिए झपक गई। जागी तो देखा कि मैं सिर से पाँव तक हीरे व जवाहिरों से लदी हूँ। उसके विशाल भवन के कलश आकाश से बातें कर रहे थे। सारा भवन संगमरमर से बना हुआ, अमूल्य पत्थरों से जड़ा हुआ था। द्वार पर मीलों तक हरियाली छायी हुई थी। दासियाँ स्वर्णाभूषणों से लदी हुई सुनहरे कपड़े पहने हुए चारों ओर दौड़ती थीं। तारा को देखते ही वे स्वर्ण के लोटे और कटोरे लेकर दौड़ी। तारा ने देखा कि मेरा पलंग हाथीदाँत का है। भूमि पर बड़े कोमल बिछौने बिछे हुए हैं। सिरहाने की ओर एक बड़ा सुन्दर ऊँचा शीशा रखा हुआ है। तारा ने उसमें अपना रूप देखा, चकित रह गई। उसका रूप चंद्रमा को भी लज्जित करता था। दीवार पर अनेकानेक सुप्रसिद्ध चित्रकारों के मनमोहक चित्र टँगे थे। पर ये सब-के सब तारा की सुन्दरता के आगे तुच्छ थे। तारा को अपनी सुन्दरता का गर्व हुआ। वह कई दासियों को लेकर वाटिका में गयी। वहाँ की छटा देखकर वह मुग्ध हो गयी। वायु में गुलाब और केसर घुले हुए थे। रंग-विरंग के पुष्प, वायु के मंद-मंद झोंकों से मतवालों की तरह झूम रहे थे। तारा ने एक गुलाब का फूल तोड़ लिया और उसके रंग और कोमलता की अपने अधर-पल्लव से समानता करने लगी। गुलाब में वह कोमलता न थी। वाटिका के मध्य में एक बिल्लौर जड़ित हौज था। इसमें हंस और बतख किलोलें कर रहे थे। यकायक तारा को ध्यान आया, मेरे घर के लोग कहाँ हैं? दासियों से पूछा। उन्होंने कहा–‘वे लोग पुराने घर में हैं।’ तारा ने अपनी अटारी पर जाकर देखा। उसे अपना पहला घर एक साधारण झोंपड़े की तरह दृष्टिगोचर हुआ, उसकी बहिनें उसकी साधारण दासियों के समान भी न थीं। माँ को देखा, वह आँगन में बैठी चरखा कात रही थी। तारा पहले सोचा करती थी, कि जब मेरे दिन चमकेंगे, तब मैं इन लोगों को भी अपने साथ रखूँगी और उनकी भली-भाँति सेवा करूँगी। पर इस समय धन के गर्व ने उसकी पवित्र हार्दिक इच्छा को निर्बल बना दिया था। उसने घरवालों को स्नेहरहित दृष्टि से देखा और तब वह उस मनोहर गान को सुनने चली गयी, जिसकी प्रतिध्वनि उसके कानों में आ रही थी।

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