कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह) प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ
दोनों पहरेदार वहीं तमाशा देख रहे थे। मुंशीजी दबे पाँव लालटेन के पास गये और जिस तरह बिल्ली चूहे पर झपटती है, उसी तरह उन्होंने झपट कर लालटेन को बुझा दिया। एक पड़ाव पूरा हो गया, पर वे उस कार्य को जितना दुष्कर समझते थे, उतना न जान पड़ा। हृदय कुछ मजबूत हुआ। दफ्तर के बरामदे में पहुँचे और खूब कान लगाकर आहट ली। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। केवल चमारों का कोलाहल सुनाई देता था, हाथ-पाँव काँप रहे थे, सांस, बड़े वेग से चल रही थी; शरीर का रोम-रोम आँख और कान बना हुआ था। वे सजीवता की मूर्ति हो रहे थे। उनमें जितना पौरुष, जितनी चपलता, जितना साहस, जितनी चेतनता, जितनी बुद्धि, जितना औसान था, वे सब इस वक्त सजग और सचेत होकर इच्छा-शक्ति की सहायता कर रहे थे।
दफ्तर के दरवाजे पर वही पुराना ताला लगा हुआ था। उसकी कुंजी आज बहुत तलाश करके बाजार से लाये थे। ताला खुल गया, किवाड़ों ने बहुत दबी जबान से प्रतिरोध किया, इस पर किसी ने ध्यान न दिया। मुंशीजी दफ्तर में दाखिल हुए। भीतर चिराग जल रहा था। मुंशीजी को देखकर उसने एक तरफ सिर हिलाया। मानो उन्हें भीतर आने से रोका।
मुंशीजी के पैर थर-थर कांप रहे थे। एड़ियां जमीन से उछली पड़ती थीं। पाप का बोझ उन्हें असह्य था।
पल-भर में मुंशीजी ने बहियों को उलटा-पलटा; लिखावट उनकी आँखों में तैर रही थी। इतना अवकाश कहाँ था कि जरूरी कागजात छाँट लेते। उन्होंने सारी बहियों को समेट कर बड़ा गट्ठर बनाया और सिर पर रखकर तीर के समान कमरे से बाहर निकल आये। उस पाप की गठरी को लादे हुए वह अंधेरी गली में गायब हो गए।
तंग, अंधेरी, दुर्गन्धपूर्ण, कीचड़ से भरी गलियों में वे नंगे पाँव, स्वार्थ, लोभ और कपट का वह बोझ लिये चले जाते थे। मानो पापमय आत्मा नरक की नालियों में बही जाती थी।
बहुत दूर तक भटकने के बाद वे गंगा के किनारे पहुँचे। जिस तरह कलुषित हृदयों में कहीं-कहीं धर्म का धुँधला प्रकाश रहता है, उसी तरह नदी की सतह पर तारे झिलमिला रहे थे। तट पर कई साधु धूनी रमाए पड़े थे। ज्ञान की ज्वाला मन की जगह बाहर दहक रही थी। मुंशीजी ने अपना गठ्ठर उतारा और चादर खूब मजबूत बाँधकर बलपूर्वक नदी में फेंक दिया। सोती हुई लहरों में कुछ हलचल हुई और फिर सन्नाटा हो गया।
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