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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


उन्होंने सिर्फ तर्क की शरण ली। मैं मानो भंग खाकर आया हूँ। इस चपरासी से इतना डरा। माना कि वह मुझे देख लेता, पर मेरा कर क्या सकता था? हजारों आदमी रास्ता चल रहे हैं। उन्हीं में एक मैं भी हूँ। क्या वह अंतर्यामी है? सबके हृदय का हाल जानता है? मुझे देखकर वह अदब से सलाम करता और वहां का कुछ हाल भी कहता, पर मैं उससे ऐसा डरा कि सूरत तक भी न दिखायी। इस तरह मन को समझा कर वे आगे बढ़े। सच है, पाप के पंजों में फँसा हुआ मन पतझड़ का पत्ता है, जो हवा के जरा से झोंके से गिर पड़ता है।

मुंशीजी बाजार पहुँचे। अधिकतर दूकानें बंद हो चुकी थीं। उनमें साँड़ और गायें बैठी हुई जुगाली कर रही थीं। केवल हलवाइयों की दुकाने खुली हुई थीं और कहीं-कहीं गजरेवाले हार की हाँक लगाते फिरते थे। सब हलवाई मुंशीजी को पहचानते थे। अतएव मुंशीजी ने सिर झुका लिया। कुछ चाल बदली और लपकते हुए चले। यकायक उन्हें एक बग्घी आती हुई दिखाई दी। यह सेठ बल्लभदास वकील की बग्घी थी। इसमें बैठकर हजारों बार सेठजी के साथ कचहरी गये थे; पर आज यह बग्घी कालदेव के समान भयंकर मालूम हुई। फौरन एक खाली दुकान पर चढ़ गये। वहाँ विश्राम करने वाले साँड़ ने समझा, ये मुझे पदच्युत करने आये हैं। माथा झुकाए, फुंकारता हुआ उठ बैठा। पर इसी बीच में बग्घी निकल गयी और मुंशी जी के जान आयी। अबकी उन्होंने तर्क का आश्रय न लिया। समझ गये कि इस समय इससे कोई लाभ नहीं। खैरियत यह हुई कि वकील ने देखा नहीं। वह एक ही घाघ है। मेरे चेहरे से ताड़ जाता।

कुछ विद्वानों का कथन है कि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति पाप की ओर होती है, पर वह कोरा अनुमान-ही-अनुमान है; बात अनुभव-सिद्ध नहीं। सच बात यह है कि मनुष्य स्वाभवतः पाप-भीरु होता है और हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि पाप से उसे कैसी घृणा होती है।

एक फरलांग आगे चलकर मुंशीजी को एक गली मिली। यही भानुकुँवरि के घर का रास्ता था। एक धुँधली-सी लालटेन जल रही थी। जैसा मुंशीजी ने अनुमान किया था, पहरेदार का पता न था। अस्तबल में चमारों के यहाँ नाच हो रहा था। कई चमारिनें बनाव-सिंगार करके नाच रही थीं। चमार मृदंग बजा-बजाकर गाते थे–

नाहीं घरे श्याम, घेरी आये बदरा,

सोवत रहेऊँ सपन एक देखेऊँ रामा।

खुलि गई नीद, ढरक गए कजरा,

नाहीं घरे श्याम, घेरी आये बदरा।

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