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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


एकबारगी जोर से एक कड़का हुआ, बिजली चमकी और बिजली की छटाओं से एक ज्योतिस्वरूप नवयुवक निकलकर तारा के सामने नम्रता से खड़ा हो गया। तारा ने पूछा–तुम कौन हो?

नवयुवक ने कहा–श्रीमती, मुझे विद्युतसिंह कहते हैं। मैं श्रीमती का आज्ञाकारी हूँ।

उसके विदा होते ही वायु के उष्ण झोंके चलने लगे। आकाश में एक प्रकाश दृष्टिगोचर हुआ। यह क्षण-मात्र में उतरकर तारा कुँवरि के समीप ठहर गया। उसमें से एक ज्वालामुखी मनुष्य ने निकलकर तारा के पदों को चूमा। तारा ने पूछा–तुम कौन हो?

उस मनुष्य ने उत्तर दिया–श्रीमती, मेरा नाम अग्निसिंह है! मैं श्रीमती का आज्ञाकारी सेवक हूँ।

वह अभी जाने भी न पाया था कि एकबारगी सारा महल ज्योति से प्रकाशमान हो गया। जान पड़ता था, सैकड़ों बिजलियां मिलकर चमक रही हैं। वायु सवेग हो गई। एक जगमगाता हुआ सिंहासन आकाश पर दीख पड़ा। वह शीघ्रता से पृथ्वी की ओर चला और तारा कुँवरि के पास आकर ठहर गया। उससे एक प्रकाशमान रूप का बालक, जिसके रूप से गम्भीरता प्रकट होती थी, निकलकर तारा के सामने निष्ठाभाव से खड़ा हो गया। तारा ने पूछा–तुम कौन हो?

बालक ने उत्तर दिया–श्रीमती! मुझे मिस्टर रेडियम कहते हैं। मैं श्रीमती का आज्ञापालक हूँ।

धनी लोग तारा के भय से थर्राने लगे। उसके आश्चर्यजनक सौंदर्य ने संसार को चकित कर दिया। बड़े-बड़े महीपति उसकी चौखट पर माथा रगड़ने लगे। जिसकी ओर उसकी कृपा-दृष्टि हो जाती, वह अपना अहोभाग्य समझता, सदैव के लिए उसका बेदाम का गुलाम बन जाता।

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