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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


साधु–साधुओं को महल और धन का क्या काम? मैं इस घर में नहीं ठहर सकता।

तारा–संसार के सारे सुख आपके लिए उपस्थित हैं।

साधु–मुझे सुखों की कामना नहीं।

तारा–मैं आजीवन आपकी दासी रहूँगी। यह कहकर तारा ने आइने में अपने अलौकिक सौंदर्य की छटा देखी ओर उसके नेत्रों में चंचलता आ गई।

साधु–तारा कुँवरि, मैं इस योग्य नहीं हूँ। यह कहकर साधु ने बीन उठायी और द्वार की ओर चला। तारा का गर्व टूक-टूक हो गया लज्जा से सिर झुक गया। वह मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी। मन में सोचा–मैं धन में, ऐश्वर्य में, सौंदर्य में जो अपनी समता नहीं रखती, एक साधु की दृष्टि में इतनी तुच्छ!!

तारा को अब किसी प्रकार चैन नहीं था। उसे अपना भवन और ऐश्वर्य भयानक मालूम होने लगा। बस, साधु का एक चंद्रस्वरूप उसकी आँखों में नाच रहा था और उसका स्वर्गीय गान कानों में गूँज रहा था। उसने अपने गुप्तचरों को बुलाया और साधु का पता लगाने की आज्ञा दी। बहुत छानबीन के पश्चात् उसकी कुटी का पता लगा। तारा नित्यप्रति वायुयान पर बैठकर साधु के पास जाती; कभी उस पर लाल, जवाहर लुटाती; कभी रत्न और आभूषण की छटा दिखाती। पर साधू इससे तनिक विचलित न हुआ। तारा के माया जाल का उस पर कुछ भी असर न हुआ।

तब तारा कुँवरि फिर दुर्गा के मंदिर में गयी और देवी के चरणों पर सिर रखकर बोली–माता, तुमने मुझे संसार के सारे दुर्लभ पदार्थ प्रदान किए। मैंने समझा था कि ऐश्वर्य में संसार को दास बना लेने की शक्ति है, पर मुझे अब ज्ञात हुआ कि प्रेम पर ऐश्वर्य, सौंदर्य और वैभव का कुछ भी अधिकार नहीं। अब एक बार मुझ पर वही कृपा-दृष्टि हो। कुछ ऐसा कीजिए कि जिस निष्ठुर के प्रेम में मैं मरी जा रही हूँ उसे भी मुझे देखे बिना चैन न आए। उसकी आँखों में भी नींद हराम हो जाए, वह भी मेरे प्रेम-मद में चूर हो जाए।

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