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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


देवी के होंठ खुले, मुस्करायी। उसके अधर-पल्लव विकसित हुए बोली सुनाई दी–तारा, मैं संसार के सारे पदार्थ प्रदान कर सकती हूँ, पर स्वर्ग-सुख मेरी शक्ति से बाहर है। ‘प्रेम’ स्वर्ग-सुख का मूल है।

तारा–माता, संसार के सारे ऐश्वर्य मुझे जंजाल जान पड़ते हैं। बताइए, मैं अपने प्रीतम को कैसे पाऊँगी?

देवी–उसका एक ही मार्ग है, पर है वह बहुत कठिन। भला, तुम उस पर चल सकोगी?

तारा–वह कितना ही कठिन हो, मैं उस मार्ग का अवलम्बन अवश्य करूँगी।

देवी–अच्छा, तो सुनो; वह सेवा-मार्ग है। सेवा करो, प्रेम सेवा ही से मिल सकता है।

तारा ने अपने बहुमूल्य जड़ाऊ आभूषणों और रंगीन वस्त्रों को उतार दिया। दासियों से बिदा हुई। राजभवन को त्याग दिया। अकेले नंगे पैर साधु की कुटी में चली आयी और सेवा-मार्ग का अवलम्बन किया।

वह कुछ रात रहे उठती। कुटी में झाड़ू देती। साधु के लिए गंगा से जल लाती। जंगलों से पुष्प चुनती। साधु नींद में होते तो वह उन्हें पंखा झलती। जंगली फल तोड़ लाती और केले के पत्तल बनाकर साधु के सम्मुख रखती। साधु नदी में स्नान करने जाया करते थे। तारा रास्ते से कंकर चुनती। उसने कुटी के चारों ओर पुष्प लगाए। गंगा से पानी लाकर सींचती, उन्हें हरा-भरा देखकर प्रसन्न होती। उसने मदार की रुई बटोरी, साधु के लिए नर्म गद्दे तैयार किए। अब और कोई कामना न थी! सेवा स्वयं अपना पुरस्कार और फल थी।

तारा को कई-कई दिन उपवास करना पड़ता। हाथों में गट्टे पड़ गए। पैर काँटों से चलनी हो गए। धूप से कोमल गात मुरझा गया। गुलाब-सा बदन सूख गया, पर उसके हृदय में अब स्वार्थ और गर्व का शासन न था। वहाँ अब प्रेम का राज था; वहां अब उस सेवा की लगन थी, जिससे कलुषता की जगह आनन्द का स्रोत बहता और काँटे पुष्प बन जाते हैं जहाँ अश्रु-धारा की जगह नेत्रों से अमृतजल की वर्षा होती और दुःख-विलाप की जगह आनंद के राग निकलते हैं, जहां के पत्थर रुई से ज्यादा कोमल हैं और शीतल वायु से भी मनोहर। तारा भूल गई कि मैं सौंदर्य में अद्वितीय हूँ। धन विलासिनी तारा अब केवल प्रेम की दासी थी।

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