कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह) प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ
साधु को वन के खगों और मृगों से प्रेम था। वे कुटी के पास एकत्रित हो जाते! तारा उन्हें पानी पिलाती, दाने चुगाती, गोद में लेकर उनका दुलार करती। विषधर साँप और भयानक जंतु उसके प्रेम के प्रभाव से उसके सेवक हो गए।
बहुधा रोगी मनुष्य साधु के पास आशीर्वाद लेने आते थे। तारा रोगियों की सेवा-सुश्रूषा करती, जंगल से जड़ी-बूटियाँ ढूंढ़ लाती, उनके लिए औषधि बनाती, उनके घाव धोती, घावों पर मरहम रखती, रात-रात भर बैठी उन्हें पंखा झलती। साधु के आशीर्वाद को उसकी सेवा प्रभावयुक्त बना देती थी।
इस प्रकार कितने ही वर्ष बीत गए। गर्मी के दिन थे, पृथ्वी तवे की तरह जल रही थी। हरे-भरे वृक्ष सूखे जाते थे। गंगा गर्मी से सिमट गई थी। तारा को पानी के लिए बहुत दूर रेत में चलना पड़ता। उसका कोमल अंग चूर-चूर हो जाता। जलती हुई रेत में तलवे भुन जाते। इसी दशा में एक दिन वह हताश होकर एक वृक्ष के नीचे क्षण-भर दम लेने के लिए बैठ गई। उसके नेत्र बंद हो गए। उसने देखा, देवी मेरे सम्मुख खड़ी, कृपादृष्टि से मुझे देख रही है। तारा ने दौड़ कर उनके पदों को चूमा।
देवी ने पूछा–तारा, तेरी अभिलाषा पूरी हुई?
तारा–हाँ माता, मेरी अभिलाषा पूरी हुई।
देवी–तुझे प्रेम मिल गया?
तारा–नहीं माता, मुझे उससे भी उत्तम पदार्थ मिल गया। मुझे प्रेम के हीरे के बदले सेवा का पारस मिल गया। मुझे ज्ञात हुआ है कि प्रेम सेवा का चाकर है। सेवा के सामने सिर झुकाकर अब मैं प्रेम-भिक्षा नहीं चाहती। अब मुझे किसी दूसरे सुख की अभिलाषा नहीं। सेवा ने मुझे प्रेम, आदर, सुख सबसे निवृत्त कर दिया।
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