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कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


मगर मंगला को केवल अपनी रूपहीनता ही का रोना न था, शीलता का अनुपम रूप-लावण्य भी उसकी कामनाओं का बाधक था, बल्कि यही उसकी आशालताओं पर पड़नेवाला तुषार था। मंगला सुंदरी न सही, पर पति पर जान देती थी। जो अपने को चाहे, उससे हम विमुख नहीं हो सकते; प्रेम की शक्ति अपार है। पर शीतला की मूर्ति सुरेश के हृदय-द्वार पर बैठी हुई मंगला को अंदर न जाने देती थी, चाहे वह कितना ही वेश बदलकर आवे। सुरेश इस मूर्ति को हटाने की चेष्ठा करते थे, उसे बलात् निकाल देना चाहते थे; किन्तु सौंदर्य का आधिपत्य धन के आधिपत्य से कम दुर्निवार नहीं होता। जिस दिन शीतला इस घर में मंगला का मुँह देखने आयी थी, उसी दिन सुरेश की आँखों ने उसकी मनोहर छवि की झलक देख ली थी। वह एक झलक मानो एक क्षणिक क्रिया थी, जिसने एक ही धावे में समस्त हृदय-राज्य को जीत लिया–उस पर अपना आधिपत्य जमा लिया।

सुरेश एकांत में बैठे हुए शीतला के चित्र को मंगला से मिलाते, यह निश्चय करने के लिए कि उनमें अन्तर क्या है? एक क्यों मन को खींचती है; दूसरी क्यों उसे हटाती है? पर उनके मन का यह खिंचाव केवल एक चित्रकार या कवि का रसास्वादन मात्र था। वह पवित्र और वासनाओं से रहित था। वह मूर्ति केवल उनके मनोरंजन की सामग्री-मात्र थी। वह अपने मन को बहुत समझाते, संकल्प दोष? पर उनका यह सब प्रयास मंगला के सम्मुख जाते ही विफल हो जाता। वह बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से मंगला के मन के बदले हुए भावों को देखते; पर एक पक्षाघात-पीड़ित मनुष्य की भाँति घी के घड़े को लुढ़कते देखकर भी रोकने का कोई उपाय न कर सकते। परिणाम क्या होगा। यह सोचने का साहस ही न होता। पर जब मंगला ने अंत को बात-बात में उनकी तीव्र आलोचना करना शुरू कर दिया, वह उससे उच्छृंखलता का व्यवहार करने लगी, तब उसके प्रति उनका वह उतना सौहार्द्र भी विलुप्त हो गया। घर में आना-जाना ही छोड़ दिया।

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