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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


एक दिन संध्या के समय बड़ी गरमी थी, पंखा झलने से आग और भी दहकती थी। कोई सैर करने बगीचों में भी न जाता था। पसीने की भाँति शरीर से सारी स्फूर्ति बह गई थी। जो जहाँ था, वहीं मुर्दा-सा पड़ा था। आग से सेंके हुए मृदंग की भाँति लोगों के स्वर कर्कश हो गए थे। साधारण बातचीत में भी लोग उत्तेजित हो जाते, जैसे साधारण संघर्ष से वन के वृक्ष जल उठते हैं। सुरेशसिंह कभी चार कदम टहलते, फिर हाँफकर बैठ जाते। नौकरों पर झुझला रहे थे कि जल्द-जल्द छिड़काव क्यों नहीं करते! सहसा उन्हें अंदर से गाने की आवाज सुनाई दी। चौंके, फिर क्रोध आया। मधुर गान कानों को अप्रिय जान पड़ा। यह क्या बेवक्त की शहनाई है। यहाँ गरमी के मारे दम निकल रहा है, और इन सबको गाने की सूझी है! मंगला ने बुलाया होगा, और क्या! लोग नाहक कहते हैं कि स्त्रियों के जीवन का आधार प्रेम है। उनके जीवन का आधार वही भोजन, निद्रा राग-रंग, आमोद-प्रमोद है, जो समस्त प्रणियों का है। घंटे भर तो सुन चुका। यह गीत कभी बंद होगा या नहीं; सब व्यर्थ में गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रही हैं।

अंत को न रहा गया। जनानखाने में आकर बोले–यह तुम लोगों ने क्या काँव-काँव मचा रखी है? यह गाने-बजाने का कौन-सा समय है? बाहर बैठना मुश्किल हो गया!

सन्नाटा छा गया जैसे शोर-गुल मचाने वाले बालकों में मास्टर पहुँच जाए। सभी ने सिर झुका लिया और सिमट गईं।

मंगला तुरन्त उठकर सामने वाले कमरे में चली गई। पति को बुलाया और आहिस्ते से बोली–क्यों इतना बिगड़ रहे हो?

‘मैं इस वक्त गाना नहीं सुनना चाहता।’

‘तुम्हें सुनाता ही कौन है? क्या मेरे कानों पर भी तुम्हारा अधिकार है?’

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