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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


‘फजूल की बमचख–’

‘तुमसे मतलब?’

‘मैं अपने घर में यह कोलाहल न मचने दूँगा।’

‘तो मेरा घर कहीं और है?’

सुरेशसिंह इसका उत्तर न देकर बोले–इन सबसे कह दो, फिर किसी वक्त आवें।

मंगला–इसलिए कि तुम्हें इनका आना अच्छा नहीं लगता?

‘हाँ, इसलिए!’

‘तुम क्या सदा वही करते हो, जो मुझे अच्छा लगे? तुम्हारे यहाँ मित्र आते हैं, हँसी-ठट्टे की आवाज अंदर, सुनाई देती है। मैं कभी कहती कि इन लोगों का आना बंद कर दो। तुम मेरे कामों में दस्तंदाजी क्यों करते हो?’

सुरेश ने तेज होकर कहा–इसलिए कि मैं घर का स्वामी हूँ।

मंगला–तुम बाहर के हो, यहाँ मेरा अधिकार है।

सुरेश–क्यों व्यर्थ की बक-बक करती हो? मुझे चिढ़ाने से क्या मिलेगा? मंगला जरा देर चुप खड़ी रही। वह पति के मनोगत भावों की मीमांसा कर रही थी। फिर बोली–अच्छी बात है। अब इस घर में मेरा कोई अधिकार नहीं, तो न रहूँगी। अब तक भ्रम में थी। आज तुमने वह भ्रम मिटा दिया। मेरा इस घर पर अधिकार कभी नहीं था। जिस स्त्री का पति के हृदय पर अधिकार नहीं, उसका उसकी सम्पत्ति पर भी कोई अधिकार नहीं हो सकता।

सुरेश ने लज्जित होकर कहा–बात का बतंगड़ क्यों बनाती हो! मेरा यह मतलब न था। कुछ-का-कुछ समझ गईं।

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