लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

93 पाठक हैं

इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


लेकिन इस संघर्ष और संग्राम के काल में उदासीनता का निर्वाह कहाँ। ‘गौरव’ के कई प्रतियोगी खड़े हो गए, जिनके नवीन उत्साह ने ‘गौरव’ से बाजी मार ली। उसका बाजार ठंडा होने लगा। नए प्रतियोगियों का जनता ने बड़े हर्ष से स्वागत किया। उनकी उन्नति होने लगी। यद्यपि उनके सिद्वांत भी वही, लेखक भी वही, विषय भी वही थे, लेकिन आगंतुकों ने उन्हीं पुरानी बातों में नई जान डाल दी। उनका उत्साह देख, ईश्वरचंद्र को भी जोश आया कि एक बार फिर अपनी रुकी हुई गाड़ी में जोर लगाऊँ, लेकिन न अपने में सामर्थ्य थी, न कोई हाथ बँटाने वाला नजर आता था। इधर-उधर निराश नेत्रों से देखकर हतोत्साह हो जाते थे। हा! मैंने अपना सारा जीवन सार्वजनिक कार्यों में व्यतीत किया खेत बोया सींचा, दिन को दिन और रात को रात न समझा, धूप में जला, पानी में भीगा, और इतने परिश्रम के बाद जब फसल काटने के दिन आये, मुझमें हँसिया पकड़ने का बूता नहीं। दूसरे लोग, जिनका उस समय कहीं पता न था। अनाज काट-काटकर खलिहान भरे लेते हैं, और मैं खड़ा मुँह ताकता हूँ। उन्हें पूरा विश्वास था कि अगर कोई उत्साहशील युवक मेरा शरीक हो जाता, तो ‘गौरव’ अब भी अपने प्रतिद्वंद्वियों को परास्त कर सकता था। सभ्य-समाज में उसकी धाक जमी हुई थी, परिस्थिति उनके अनुकूल थी। जरूरत केवल ताजे खून की थी। उन्हें अपने बड़े लड़के से ज्यादा उपयुक्त इस काम के लिए और कोई न दिखाई देता था। उसकी रुचि भी इस काम की ओर थी, पर मानकी के भय से वह इस विचार को जबान पर न ला सके थे। इसी चिंता में दो साल गुजर गए, और यहां तक की नौबत पहुँची कि या तो ‘गौरव’ का टाट उलट दिया जाय, या उसे फिर सँभाला जाय।

ईश्वरचंद्र ने इसके पुनरुद्धार के लिए अंतिम उद्योग करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। इसके सिवा और कोई उपाय न था। यह पत्रिका उनके जीवन का सर्वस्व थी। उसे बन्द करने की वह कल्पना भी न कर सकते थे। यद्यपि उनका स्वास्थ्य अच्छा न था, पर प्राणरक्षा की स्वाभाविक इच्छा ने उन्हें अपना सब कुछ अपनी पत्रिका पर न्योछावर करने को उद्यत कर दिया। फिर दिन-के-दिन लिखने-पढ़ने में रत रहने लगे। एक क्षण के लिए भी सिर न उठाते। ‘गौरव’ के लेखों में फिर सजीवता का उद्भव हुआ, विद्वज्जनों में फिर उनकी चर्चा होने लगी, सहयोगियों ने फिर उनके लेखों को उद्धृत करना शुरू किया, पत्रिकाओं में फिर उनकी प्रशंसा-सूचक आलोचनाएँ निकलने लगीं। पुराने उस्ताद की ललकार फिर अखाड़े में गूँजने लगी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book