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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


लेकिन पत्रिका के पुनःसंस्कार के साथ उनका शरीर और भी जर्जर होने लगा। हृदय-रोग के लक्षण दिखाई देने लगे। रक्त की न्यूनता से मुख पर पीलापन छा गया। ऐसी दशा में वह सुबह से शाम तक अपने काम में लीन रहते। देश में धन और श्रम पर संग्राम छिड़ा हुआ था। ईश्वरचंद्र की सदय प्रकृति ने उन्हें श्रम का सपक्षी बना दिया था। धनवादियों का खंडन और प्रतिवादन करते हुए उनके खून में गरमी आ जाती थी, शब्दों से चिनगारियाँ निकलने लगती थीं, यद्यपि वे चिनगारियाँ केन्द्रस्थ गरमी को छिन्न किए देती थीं।

एक दिन, रात के दस बज गए थे। सरदी खूब पड़ रही थी। मानकी दबे पैर उनके कमरे में आयी। दीपक की ज्योति में उनके मुख का पीलापन और भी स्पष्ट हो गया। वह हाथ में कलम लिये किसी विचार में मग्न थे। मानकी के आने की उन्हें जरा भी आहट न मिली, मानकी एक क्षण तक उन्हें वेदनायुक्त नेत्रों से ताकती रही। तब बोली–अब तो यह पोथा बन्द करो। आधी रात होने को आयी। खाना पानी हुआ जाता है।

ईश्वरचंद्र ने चौंककर सिर उठाया और बोला–क्यों, क्या आधी रात हो गई? नहीं, अभी मुश्किल से दस बजे होंगे। मुझे अभी जरा भी भूख नहीं।

मानकी–कुछ थोड़ा-सा खा लेना।

ईश्वरचंद्र–एक ग्रास भी नहीं। मुझे इस समय अपना लेख समाप्त करना है।

मानकी–मैं देखती हूँ, तुम्हारी दशा दिन-दिन बिगड़ती जाती है, दवा क्यों नहीं करते? जान खपाकर थोड़े ही काम किया जाता है।

ईश्वचन्द्र–अपनी जान को देखूँ या इस घोर संग्राम को, जिसने समस्त देश में हलचल मचा रखी है। हजारों-लाखों जानों की हिमायत में एक जान न भी रहे तो क्या चिन्ता?

मानकी–कोई सुयोग्य सहायक क्यों नहीं रख लेते?

ईश्वरचंद्र ने ठंडी साँस लेकर कहा–बहुत खोजता हूँ, पर कोई नहीं मिलता। एक विचार कई दिनों से मेरे मन में उठ रहा है, अगर तुम धैर्य देकर सुनना चाहो, तो कहूँ।

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