सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
इस भाँति ज्ञानशंकर की शंकाओं को उत्तेजित करने में राय साहब का आशय क्या था, इसको समझना कठिन है। शायद यह उनके हृदयगत भावों की थाह लेना चाहते थे अथवा उनकी क्षुद्रता और स्वार्थपरता का तमाशा देखने का विचार था। वह तो यह चिनगारी दिखाकर हवा खाने चल दिये। बेचारे ज्ञानशंकर अग्नि-दाह में जलने लगे। उन्हें इस समय नाना प्रकार की शंकाएँ हो रही थीं। उनका वह तत्क्षण समाधान करना चाहते थे। क्या भाई साहब गत वर्षों के मुनाफे का दावा कर सकते हैं? यदि वह ऐसा करें, तो मेरे लिए भी निकास का कोई उपाय है या नहीं? क्या राय साहब को अधिकार है कि रियासत पर ऋणों का बोझ लादते जायँ? उनकी फजूलखर्ची को रोकने की कोई कानूनी तदबीर हो सकती है या नहीं? इन प्रश्नों से ज्ञानशंकर के चित्त में घोर अशान्ति हो रही थी, उनकी मानसिक वृत्तियाँ जल रही थीं। वह उठकर राय साहब के पुस्तकालय में गये और एक कानून की किताब निकालकर देखने लगे। इस किताब से शंका निवृत न हुई। दूसरी किताब निकाली, यहाँ तक की थोड़ी देर में मेज पर किताबों का ढेर लग गया। कभी इस पोथी के पन्ने उलटते थे, कभी उस पोथी के, किन्तु किसी प्रश्न का सन्तोषप्रद उत्तर न मिला। हताश होकर वे इधर-उधर ताकने लगे। घड़ी पर निगाह पड़ी। दस बजा चाहते थे। किताबें समेटकर रख दीं, भोजन किया, लेटे, किन्तु नींद कहाँ? चित्त की चंचलता निद्रा की बाधक है। अब तक वह स्वयं अपने जीवन-सागर के रक्षा-तट थे। उनकी सारी आकाँक्षाएँ इसी तट पर विश्राम किया करती थीं। प्रेमशंकर ने आकर इस रक्षा– तट को विध्वंस कर दिया था और उन नौकाओं को डावाँडोल। भैया क्योंकर काबू में आयेंगे? खुशामद से? कठिन है, वह एक ही घाघ हैं। नम्रता और विनय से? असम्भव। नम्रता का जवाब सदव्यवहार हो सकता है, स्वार्थ त्याग नहीं। फिर क्या कलह और अपवाद से? कदापि नहीं, इससे मेरा पक्ष और भी निर्बल हो जायेगा। इस प्रकार भटकते-भटकते सहसा ज्ञानशंकर को एक मार्ग दीख पड़ा और वह हर्षोंन्मत्त होकर उछल पड़े! वाह मैं भी कितना मन्द-बुद्धि हूँ। बिरादरी इन महाशय को घर में पैर तो रखने देगी नहीं, यह बेचारे मुझसे क्या छेड़ छाड़ करेंगे? आश्चर्य है, अब तक यह मोटी-सी बात भी मेरे ध्यान में न आयी। राय साहब को भी न सूझी। बनारस आते ही लाला पर चारों ओर से बौछारें पड़ने लगेंगी, उनके वहाँ पैर भी न जमने पायेंगे। प्रकट में मैं उनसे भ्रातृवत व्यवहार करता रहूँगा, बिरादरी की संकीर्णता और अन्याय पर आँसू बहाऊँगा, लेकिन परोक्ष में उसकी कील घुमाता रहूँगा। महीने दो महीने में आप ही भाग खड़े होंगे। शायद श्रद्धा भी उनसे खिंच जाये। उसे कुछ उत्तेजित करना पड़ेगा। धार्मिक प्रवृत्ति की स्त्री है। लोकमत का असर उस पर अवश्य पड़ेगा। बस, मेरा मैदान साफ है। इन महाशय से डरने की कोई जरूरत नहीं। अब मैं निर्भय होकर भ्रातृ-स्नेह आचरण कर सकता हूँ।
इस विचार से ज्ञानशंकर इतने उल्फुल्ल हुए कि जी चाहा चलकर विद्या को जगाऊँ, पर जब्त से काम लिया। इस चिन्ता-सागर से निकलकर अब उन्हें शंका होने लगी कि गायत्री की अप्रसन्नता भी मेरा भ्रम है। मैं स्त्रियों के मनोभावों से सर्वथा अपरिचित हूँ। सम्भव है, मैंने उतावलापन किया हो, पर यह कोई ऐसा अपराध न था कि गायत्री उसे क्षमा न करती। मेरे दुस्साहस पर अप्रसन्न होना उसके लिए स्वाभाविक बात थी। कोई गौरवशाली रमणी इतनी सहज रीति से वशीभूत नहीं हो सकती। अपने सतीत्व-रक्षा का विचार स्वभावतः उसकी प्रेम वासना को दबा देता है। ऐसा न हो तो भी वह अपनी उदासीनता और अनिच्छा प्रकट करने के लिए कठोरता का स्वाँग भरना आवश्यक समझती है। शायद इससे उसका अभिप्राय प्रेम-परीक्षा होता है। वह एक अमूल्य वस्तु है! और अपनी दर गिराना नहीं चाहती। मैं अपनी असफलता से ऐसा दबा कि फिर सिर उठाने की हिम्मत ही न पड़ी। वह यहाँ कई दिन रही। मुझे जाकर उससे क्षमा माँगनी चाहिए थी। वह क्रुद्ध होती तो शायद मुझे झिड़क देती। वह स्वयं निर्दोष बनना चाहती थी और सारा दोष मेरे सिर रखती। मुझे यह वाकप्रहार सहना चाहिए था और थोड़े दिनों में मैं उसके हृदय का स्वामी होता। यह तो मुझसे हुआ नहीं, उलटे आप ही रूठ बैठा, स्वयं उससे आँखें चुराने लगा। उसने अपने मन में मुझे बोदा साहसहीन, निरा बुद्धू समझा होगा। खैर, अब कसर पूरी हुई जाती है। यह मानों अन्तः प्रेरणा है। इस जीवन-चरित्र के निकलते ही उसकी अवज्ञा और अभिमान का अन्त हो जायेगा। मान-प्रतिष्ठा पर जान देती है। राय साहब स्वयं गायत्री के भेष में अवतरित हुए हैं। उसकी यह आकांक्षा पूरी हुई तो फूली न समाएगी और जो कहीं रानी की पदवी मिल गयी तो वह मेरा पानी भरेगी। भैया के झमेले से छुट्टी पाऊँ तो यह खेल शुरू करूँ। मालूम नहीं, अपने पत्रों में कुछ मेरा कुशल-समाचार भी पूछती है या नहीं। चलूँ, विद्या से पूछूँ। अबकी वह इस प्रबल इच्छा को न रोक सके। विद्या बगल के कमरे में सोती थी। जाकर उसे जगाया। चौंककर उठ बैठी और बोली, क्या है? अभी तक सोये नहीं?
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