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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


ज्ञान– बजट की समालोचना तो मैं कल तक लिख दूँगा लेकिन दूसरे लेख में अधिक समय लगेगा। मेरे बड़े भाई, जो बहुत दिनों से गायब थे, पहली तारीख को घर आ रहे हैं। उनके आने से पहले हमें वहाँ पहुँच जाना चाहिए।

राय– वह तो अमेरिका चले गये थे?

ज्ञान– जी हाँ, वहीं से पत्र लिखा है।

राय– कैसे आदमी हैं?

ज्ञान– इस विषय में क्या कह सकता हूँ? आने पर मालूम होगा कि उनके स्वाभाव में क्या परिवर्तन हुआ है। यों तो बहुत शान्त प्रकृति और विचारशील थे।

राय– लेकिन आप जानते हैं कि अमेरिका की जलवायु बन्धु-प्रेम के भाव की पोषक नहीं है। व्यक्तिगत स्वार्थ वहाँ के जीवन का मूल तत्व है और आपके भाई साहब पर उसका असर जरूर ही पड़ा होगा।

ज्ञान– देखना चाहिए, मैं अपनी तरफ से तो उन्हें शिकायत का मौका न दूँगा।

राय– आप दें या न दें, वह स्वयं ढूँढ़ निकालेंगे। सम्भव है, मेरी शंका निर्मूल हो। मेरी हार्दिक इच्छा है कि निर्मूल हो, पर मेरा अनुभव है कि विदेश में बहुत दिनों तक रहने से प्रेम का बन्धन शिथिल हो जाता है।

ज्ञानशंकर अब अपने मनोभावों को छिपा न सके। खुलकर बोले–  मुझे भी यही भय है। जब छः साल में उन्होंने घर पर एक पत्र तक नहीं लिखा तो विदित ही है कि उनमें आत्मीयता का आधिक्य नहीं है। आप मेरे पितातुल्य हैं, आपसे क्या पर्दा है? इनके आने से सारे मंसूबे मिट्टी में मिल गये। मैं समझा था, चाचा साहब से अलग होकर दो-चार वर्षों में मेरी दशा कुछ सुधर जायेगी। मैंने ही चाचा साहब को अलग होने पर मजबूर किया, जायदाद की बाँट भी अपनी इच्छा के अनुसार की, जिसके लिए चचा साहब की सन्तान मुझे सदैव कोसती रहेगी, किन्तु सब किया-कराया बेकार गया।

राय साहब– कहीं उन्होंने गत वर्षों के मुनाफे का दावा कर दिया तो आप बड़ी मुश्किल में फँस जायेंगे। इस विषय में वकीलों की सम्मति लिये बिना आप कुछ न कीजिएगा।

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