सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
कादिर– यूँ तो गऊ है, किन्तु आज न जाने उसके सिर कैसे भूत सवार हो गया। क्यों सुक्खू महतो, आज तक गाँव में किसी से लड़ाई हुई है?
कादिर– अब बैठा रो रहा है। कितना समझाया कि चल के खाँ साहब से कसूर माफ करा ले, लेकिन शरम से आता नहीं है।
गौस खाँ– शर्म नहीं, शरारत है। उसके सिर पर जो भूत चढ़ा हुआ है उसका उतार मेरे पास है। उसे गरूर हो गया।
कादिर– अरे खाँ साहब, बेचारा मजूर गरूर किस बात पर करेगा? मूरख उजड्ड आदमी है, बात करने का सहूर नहीं है।
गौस खाँ– तुम्हें वकालत करने की जरूरत नहीं। मैं अपना काम खूब जानता हूँ। इस तरह दबने लगा तब तो मुझसे कारिन्दागिरी हो चुकी। आज एक ने तेवर बदले हैं, कल उसके दूसरे भाई शेर हो जायेंगे। फिर जमींदारी को कौन पूछता है। अगर पलटन में किसी ने ऐसी शरारत की होती तो उसे गोली मार दी जाती। ज़मींदार से आँखें बदलना खाला जी का घर नहीं है।
यह कहकर गौर खाँ टाँगें पर सवार होने चले। बिलासी रोती हुई उनके सामने हाथ बाँधकर खड़ी हो गई और बोली– सरकार कहीं की न रहूँगी। जो डाँड़ चाहें लगा दीजिए, जो सजा चाहे दीजिए, मालिकों के कान में यह बात न डालिए। लेकिन खाँ साहब ने सुक्खू महतो को हत्थे पर चढ़ा लिया था। वह सूखी करुणा को अपनी कपट-चाल में बाधक बनाना नहीं चाहते थे। तुरन्त घोड़े पर सवार हो गये और सुक्खू को आगे-आगे चलने का हुक्म दिया। कादिर मियाँ ने धीरे से गिरधर महाराज के कान में कहा– क्या महाराज, बेचारे मनोहर का सत्यानाश करके ही दम लोगे?
गिरधर ने गौरव-युक्त भाव से कहा– जब तुम हमसे आँखें दिखलाओगे तो हम भी अपनी-सी करके रहेंगे। हमसे कोई एक अंगुल दबे तो हम उससे हाथ-भर दबने को तैयार हैं। जो हमसे जौ-भर तनेगा हम उससे गज भर तन जायेंगे।
कादिर– यह तो सुपद ही है, तुम हमसे दबने लगोगे तो तुम्हें कौन पूछेगा? मुदा अब मनोहर के लिए कोई राह निकालो। उसका सुभाव तो जानते हो। गुस्सैल आदमी है। पहले बिगड़ जाता है, फिर बैठकर रोता है। बेचारा मिट्टी में मिल जायेगा।
गिरधर– भाई, अब तो तीर हमारे हाथ से निकल गया।
कादिर– मनोहर की हत्या तुम्हारे ऊपर ही पड़ेगी।
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