सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
कादिर– तब की बातें छोड़ो, अब जो सामने है उसे देखो। चलो, जल्दी करो, मैं इसीलिए तुम्हारे पास आया हूं। मेरे बैल खेत में खडे हैं।
मनोहर– दादा, मैं तो न जाऊँगा।
बिलासी– इनकी चूड़ियाँ मैली हो जायेंगी, चलो मैं चलती हूँ।
कादिर और बिलासी दोनों चौपाल चले। वहाँ इस वक्त बहुत से आदमी जमा थे। कुछ लोग लगान के रुपये दाखिल करने आए। कुछ घी के रुपये लेने के लिए और केवल तमाशा देखने और ठकुरसुहाती करने के लिए। कारिन्दे का नाम गुलाम गौस खाँ था। वह वृहदाकार मनुष्य थे, साँवला रंग, लम्बी दाढ़ी, चेहरे से कठोरता झलकती थी। अपनी जवानी में वह पलटन में नौकर थे और हवलदार के दरजे तक पहुँचे थे। जब सीमा प्रान्त में कुछ छेड़छाड़ हुई तब बीमारी की छुट्टी लेकर घर भाग आए और यहीं से इस्तीफा पेश कर दिया। वह अब भी अपने सैनिक जीवन की कथाएँ मजे ले-ले कर कहते थे। इस समय वह तख्त पर बैठे हुए हुक्का पी रहे थे। सुक्खू और दुखरन तख्त के नीचे बैठे हुए थे।
सुक्खू ने कहा– हम मजूर ठहरे, हम घमण्ड करें तो हमारी भूल है। ज़मींदार की जमीन में बसते हैं, उसका दिया खाते हैं, उससे बिगड़कर कहाँ जायँगे– क्यों दुखरन?
दुखरन– हाँ, ठीक ही है।
सुक्खू– नारायण हमें चार पैसे दें, दस मन अनाज दें तो क्या हम अपने मालिकों से लड़े मारे घमण्ड के धरती पर पैर न रखें?
दुखरन– यही मद तो आदमी को खराब करता है। इसी मद ने रावण को मिटाया, इसी के कारण जरासंध और जिरजोधन का सर्वनाश हो गया। तो भला हमारी-तुम्हारी कौन बात है?
इतने में कादिर मियाँ चौपाल में आये। उनके पीछ-पीछे बिलासी भी आयी। कादिर ने कहा– खाँ साहब, यह मनोहर की घरवाली आई है, जितने रुपये चाहें घी के लिए दे दें। बेचारी डर के मारे आती न थी।
गौस खाँ ने कटु स्वर से कहा– वह कहाँ है मनोहर, क्या उसे आते शरम आती थी?
बिलासी ने दीनता पूर्वक कहा– सरकार उनकी बातों का कुछ ख्याल न करें आपकी गुलामी करने को मैं तैयार हूँ?
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